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श्रद्धांजलि सभा - एक अनुभव

प्रो. कुलविन्दर सिंह

पिछले कुछ वर्षों से जब भी कोई देह दान, नेत्र दान या अंग दान का महायोग होता है तो श्रद्धांजलि सभा के माध्यम से दानी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए दानी परिवार का आभार व्यक्त किया जाता हैा इस अवसर पर समाज से संवाद भी होता है। यह दधीचि देह दान समिति की परम्परा है। यह एक भावुक अवसर होता है जिसमें मुझे लगता है कि यह चुनौतीपूर्ण भी है, जैसे किन शब्दों का प्रयोग किया जाए व वाक्य बोले जाएं, माहौल, धर्म, धारणाएं, रिवाज़़, रीतियां व समाज किस बात को किस तरह से लेगा व क्या प्रतिक्रिया होगी।

एक ऐसी सभा में मुझे जाने का जब पहला अवसर मिला तो अनुभव कुछ ऐसा हुआ जिसे मैं कभी भूल न पाऊंगा।

हुआ यह कि पश्चिमी क्षेत्र के समिति के संयोजक श्री रामधन का फोन आया कि ‘आप राजेन्द्र नगर जाएंगे। एक महादान हुआ है और शोक सभा में आपको बोलना है।’ बेशक एक नई पारी थी, पर एक सैनिक को इनकार करना ही नहीं था। चल पड़े प्रचंड गर्मी के मौसम में।

सभा में सब गमगीन थे, ऐसा माहौल था जैसा आम होता है। लुट जाने का, हार का सा अनुभव, रिश्तेदार एक ख़ास रंग के कपड़ों (ज़्यादातर सफ़ेद) में दिखे। परन्तु कुछ अलग-सा एक माहौल भी था। परिवार में दुःख के साथ एक अलग ही किस्म का भाव (शायद यह देह दान करने का) था। सभा में सम्मिलित लोगों में कौतुकता का भाव।

जब श्रद्धांजलियां शुरु हुर्हं तो परिवार के लोग, पड़ोसी, मित्रगण व नेता मृतक के विषय में बता रहे थे। वहीं आभास हुआ कि उनका (मृतक का) व्यक्तित्व कैसा था। मन ही मन क्या बोला जाए मसौदा बनाने लगा।

मैंने भी अपनी बात रखी और मृतक को एक वीर योद्धा व शहीद हुए सैनिक सा प्रस्तुत किया - ठीक वैसे ही जैसे सैनिक सीमा पर दुश्मनों से मोर्चा लेकर अपने देशवासियों की रक्षा में शहीद हो जाता है। इन साहब ने जीते जी समाज कल्याण में पूरी तरह योगदान किया व जाते-जाते महादान किया, और इस तरह अपनी पीछे कमाल की मिसाल पेश की। कई जीवन सजीव हो सकें, अच्छे अवसर बन सकें, सुन्दर सबल समाज को ऐसा महान योगदान किया।

अपने भाव व्यक्त करके जब मैं बैठा तो मेरे आस-पास जिज्ञासुओं की भीड़ थी। सभी कहानी का समग्र जानना चाहते थे। जो रो रहे थे अब चमकदार आंखों से जानकारी ले रहे थे कि कैसे वो भी इस काम में अपना सहयोग कर सकते हैं।

अब चूंकि पहली शोक सभा में बैठा था, वो भी न कोई साथी साथ में, न ही कोई फार्म, बाउचर व अन्य सामग्री, पर एक चीज़ मेरे पास थी ‘पैशन’ व जुनून कि करना ही है और बेहतरीन किया।

अब इसमें जो हुआ व मिला वह भी जान लें। सभी का प्यार, अपनापन व पीड़ा देखते ही बनती थी। सभी के प्रश्न बड़े थे और वेरायटी के थे-

  1. क्या हमारे मोक्ष में तो बाधा नहीं आएगी?
    तो मैंने जवाब में गीता का मार्ग बताया। शरीर केवल वाहन है, वस्त्र है। आत्मा तो अजर अमर है। स्पष्ट है। सोचें।
  2. क्या ऐसा कर दें? बच्चे न मानें तब?
    जवाब - ऐसे में उन्हें विश्वास में लेना चाहिए।
  3. ऐसा तो नहीं कि हम न रहे तो पीछे संस्कार कर दें? उन्हें क्या करना होगा? क्या विधि है?
    जवाब - खास दोस्तों या रिश्तेदान की गवाही में एक फार्म भर कर दे दो। साथ में एक फाटो और 200 रुपए भी। हमारी समिति की एक हेल्प लाइन है। समय आने पर उसके नम्बर पर फोन कर दो बाकी सब समिति संभाल लेगी।
  4. क्या धर्म या प्रापर्टी? समाज क्या कहेगा?
    उत्तर - वक्त के साथ चलना ही जीवन है व समाज हर अच्छी चीज़ से सदा सहमत होता है। करना वह जो मन में है। उसका सामना करने के लिए मदद लो।
  5. दान से हमें क्या मिलेगा? तथा दुरुपयोग या व्यापार न हो जाए?
    उत्तर - हम दधीचि देह दान समिति से जुड़े हुए हैं। सरकारी तरीके से सारे कार्य होते हैं। पूरी तरह से निष्काम व निःस्वार्थ। इसलिए व्यापार नहीं होगा। दान के बदले कुछ नहीं मिलता, सिर्फ पुण्य मिलता है। थोड़ा और विस्तार से बताएं तो नेत्रों के दान से कई लोग लाभान्वित होते हैं। मृत्यु के 6 घंटे के अन्दर नेत्र दान हो जाना चाहिए। देह दान मेडिकल के विद्यार्थियों की पढ़ाई व उनकी रिसर्च के काम आता है। अंग दान केवल ब्रेन स्टेम डेथ की हालत में होते हैं।

यह अनुभूति कुछ यूं थी जैसे किसी शहीद की सभा हो और मातृभूमि का सर्वोत्तम भाव लेकर लौटे हों।