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देह दानियों का उत्सव- एक परिकल्पना या आवश्यकता

विनोद अग्रवाल

दधीचि देहदान समिति के कार्य से जुड़ने के बाद, जब मैनें पहली बार ‘देह दानियों का उत्सव’ यह तीन शब्द पढ़े, तो मस्तिष्क में कुछ विचित्र प्रकार के भाव उत्पन्न हुए। उत्सव की बात मन में आते ही, हृदय में उल्लास और खुशी की लहर दौड़ने लगती है, सारा वातावरण हर्ष और आनन्द से भर जाता है, चारों ओर आमोद प्रमोद का एहसास होने लगता है, विनोद और मनोरंजन, धूम-धाम और उत्सर्ग की तरगों में हृदय हिलोरें लेने लगता है। वातावरण इतना हल्का हो जाता है, जिसमें दुःख और दर्द का कोई स्थान नहीं। जहाँ वेदना और संताप से मुक्ति, शारीरिक और मानसिक पीड़ा से मुक्ति, क्लेश और अभाव का अन्त, सभी प्रकार की आपत्ति, परेशानी और अशान्ति की समाप्ति, भय, डर, क्षोभ ओर सभी कष्टों से परे, रोग और क्षति से दूर एक ऐसा आनन्द और सुख व प्रसन्नता का माहौल जिसमें अभाव, विकार और विक्षोभ का कोई स्थान नहीं है, जहाँ हर कोई नृत्य करने के लिये आतुर है- उसी को तो कहते हैं उत्सव, चेहरों पर विचित्र सी मुस्कान, नाचना गाना, चारों ओर रंग ही रंग और खुशी ही खुशी।

और देह दानी/ अंगदानी शब्द पढ़ते ही, हृदय और अधिक श्रद्धा से भर जाता है। माथा उसके सम्मान में झुक जाता है, हाथ स्वतः ही जुड़ जाते हैं। व्यक्ति अभिभूत हो जाता है ऐसे दानी के प्रति- गर्व और सम्मान से। ऐसा लगता है कि यह मानव नहंी महा मानव है, यह देवता ही नहीं, देवता से भी बढ़कर है। ये अपने परिवार ओर समाज के लिए आदर्श हैं। हम सभी के लिये अनुकरणीय है। यह समाज ओर परिवार के लिए न केवल प्ररेणा के स्रोत हैं बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिए पथ प्रदर्शक हैं। इन महामानवों के द्वारा स्थापित किये गये कार्य हम सभी को ऐसी दिशा दे जाते हैं कि उस मार्ग पर चल कर हम न केवल अपना कल्याण करते हैं, बल्कि भविष्य के लिये एक आधार और कीर्तिमान स्थापित कर जाते हैं।

ऐसी महान विभूतियों का यह निर्णय, वर्तमान में सदियों से चली आ रही परम्पराओं से हट कर है। वर्तमान में तो हमारी जीवन लीला समाप्त होने के बाद, शव का दाह संस्कार किया जाता है, या दफना दिया जाता है या जल समाधि दी जाती है, आदि-आदि । इन परम्पराओं से हट कर जब हमारे प्रियजन का मृत-शरीर, श्मशान न जाकर, मेडिकल काॅलेज जाता है, तब हमारे ही समाज के लोग भांति-भांति की चर्चा करते हैं, प्रश्न चिह्न सबके चेहरे पर दिखाई देने लगते हैं, लेकिन जब उनको यह पता चलता है कि इस शरीर पर चिकित्सा विज्ञान के छात्र अध्ययन करेगें, डाक्टर्स अनुसंधान करेगें। और इस शरीर को सुरक्षित रखने के बाद, मेडिकल काॅलेज में ही अन्तिम संस्कार होगा तब सभी स्तम्भित हो जाते हैं और इस विषय में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। इन्हीं शरीरों पर अध्ययन और अनुसंधान के बाद, चिकित्सा विज्ञान के छात्र निपुण चिकित्सक बनकर, समाज की सेवा कर पाते हैं। इसी संदर्भ में एक सच्ची घटना का विवरण देना तर्क संगत होगा।

एक नेत्र रोगी जो काफी लम्बे समय से अपने रोग से पीड़ित था, जब डाक्टर के पास गया, तो डाक्टर ने उसे शल्य चिकित्सा करने का सुझाव दिया और शल्य चिकित्सा के लिये दिन व समय निश्चित कर दिया गया। वह रोगी अति प्रसन्न था कि अब कुछ समय में वह रोग मुक्त होकर, आराम से अपना जीवन -निर्वाह करेगा लेकिन बाहर पंक्ति में बैठे दूसरे रोगी ने बताया कि यह डाक्टर अनुभवी नहीं है, और संभवतः आप पर उसकी यह पहली शल्य चिकित्सा होगी। दूसरे रोगी की यह बात जानकर, पहले रोगी ने उस डाक्टर से शल्य चिकित्सा कराने का विचार त्याग दिया। अब हम सोचें विचार करें कि हमको चाहिये तो अनुभवी चिकित्सक, अपने इलाज के लिये, लेकिन उन्हें अध्ययन के समय यदि पूर्ण सामग्री नहीं मिली, तो कहां से मिलेगा उस डाक्टर को अनुभव और निपुणता, कैसे बन पायेगा वह कुशल और पारंगत चिकित्सक।

नेत्रदान अंगदान संभवतः इस लेख की विषय वस्तु नहीं है लेकिन इसकी जानकारी और महत्व से हममें से अधिकांश जन परिचित हैं। अंगदान के महत्व और इसकी आवश्यकता तो वह परिवार ही समझ सकता है जिसके किसी सदस्य को हृदय, लिवर, किडनी, पित्ताशय, इन्टेसटाईन या अन्य कोई अंग प्रत्यारोपित हुआ है। ऐसे परिवार के लिये तो वह व्यक्ति -डोनर (अंग दान करने वाला ) भगवान ही है।

यह तो हम सभी जानते हैं कि भगवान जीवन देते हैं, जिन्दगी देते हैं। लेकिन ऐसे व्यक्ति जो मरते-मरते भी अपने अंग दान कर देते हैं और जब इन अंगों को उस मरने वाले व्यक्ति के शरीर से निकाल कर दूसरे शरीर में प्रत्यारोपित कर दिये जाते हैं तो ऐसी स्थिति में वह मरणासन्न रोगी जो उस वांछित अंग की वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा होता है, उस प्रत्यारोपण के बाद नई जीवन चेतना के साथ अपना जीवन यापन करता है। ऐसे व्यक्ति के लिये अंगदान करने वाला, यदि भगवान नहीं तो भगवान से कम भी नहीं। इसीलिये हम ऐसे दान-दाताओं को महर्षि दधीचि की श्रेणी में रखकर उनका वन्दन करते हैं अभिनन्दन करते हैं, अर्चन करते हैं। उनसे हम लोग प्ररेणा लेकर उनके दर्शाये मार्ग पर चलते हैं और ऐेसा योग बनाने का प्रयास करते हैं कि हमारे साथ आप सब एवं समाज के अन्य सभी जन इस अभियान का हिस्सा बन सकें और ऐसा समय आये कि अंगों की कमी के कारण किसी का जीवन- बोझ न बने, किसी का प्राणान्त अंग की कमी का कारण ना बने। वस्तुतः इसी स्थिति के वास्तविकता में बदलने के लिये देह दानियों के उत्सवों का आयोजन किया जाता है। और यही प्रयोजन है, उद्देश्य है- हमारा ‘देह दानियों के उत्सव से’’

इसी शृंखला में दधीचि देहदान समिति अप्रैल 2018 के अन्त तक तैंतीस ‘देहदानियों के उत्सवों’ का आयोजन कर चुकी है। और इस समिति के माध्यम से दिल्ली और एन.सी.आर. के सरकारी मेडिकल कॉलेजों को अबतक 210 मृतक शरीर उपलब्ध कराये जा चुके हैं। समिति के माध्यम से 600 से अधिक नेत्रदान भी कराये गये हैं और अब तो चिकित्सा विज्ञान में हुई प्रगति के कारण एक व्यक्ति की दोनों आंखो से (यदि उसका काॅरनिया स्वस्थ स्थिति में है) तो 6 से 8 व्यक्तियों को कार्निया की वजह से दृष्टि बाधित लोगों को दृष्टि मिल सकती है। इन्हीं उत्सवों की सफलता से प्रेरणा लेकर समिति ने यह दैवीय संकल्प किया है कि 2019 तक दिल्ली और एन.सी.आर. के सभी कार्निया के कारण दृष्टि बाधित व्यक्तियों को दृष्टि प्रदान की जा सके और इसी प्रकार दिल्ली और एन.सी.आर. के क्षेत्र में संचालित सभी सरकारी मेडिकल कॉलेज में मृतक शरीरों (Cadavers) की आवश्यकता को पूरा किया जा सके। आप सभी जागरूक एवं इस अभियान के प्रति सहानुभूति रखने वाले महानुभावों से निवेदन करते हैं कि इस संकल्प की पूर्ति के लिये जनमानस में। जागरूकता बनाने के प्रयास में सहयोग करें। इन उत्सवों के माध्यम से समिति अब तक 800 से अधिक ऐसे परिवार जनों का अभिवादन और अभिनंदन कर चुकी है जिनके परिवारों से या तो नेत्रदान हुआ है, अंग दान हुए या शरीर सरकारी मेडिकल कॉलेज को सौंपा गया है। जब ऐसे दानी परिवार जन जिनके किसी प्रिय का शरीर या अंग दान हुये हैं, उनकी आखों से आँसू टपक ही जाते हैं। मैंने यह दृश्य कई बार देखा हैं, मंच पर जाते और मंच से वापिस आते समय परिवार जनों को, उन गीली पलकों के साथ।

वस्तुतः इन परिवार जनों की यह गीली पलकें, नम आखें, ओर पर्याप्त संयम के बाद भी इनकी आंखो से टपकते आँसू ही पे्ररणा का स्रोत बन जाते हैं, वहाँ उपस्थित जन मानस को यह संकल्प लेने के लिये, कि उन्होने भी अपनी जीवन लीला की समाप्ति के बाद, यह शरीर और इस शरीर में पल्लवित हो रहे अगों का दान करना है, अपने बंधु बांधवों के लिये, मानव कल्याण के महान उद्देश्य की पूर्ति के लिये। यह संदेश जन मानस में फेले यही तो उपलब्धि हैं इन ‘देह दानियों के उत्सवों’ की।

जब ऐसा कोई व्यक्ति जिसके शरीर में किसी का दान किया हुआ दिल धड़क रहा होता है, और वह इन उत्सवों के मंच से यह घोषणा करता है कि मेरी मृत्यु तो आज से 18 वर्ष पहले ही हो जाती जब डाक्टर्स ने मेरे शरीर में किसी ओर का हृदय प्रत्यारोपित किया। यह जीवन तो दूसरा जीवन है जिसका शरीर तो पहला जरूर है, लेकिन इसमें चेतना और इसकी धड़कन तो किसी महा मानव की कृपा और दयालुता का परिणाम है। मेरा यह जीवन तो बोनस है। जिस सभागार में श्रीमति प्रीति उन्हाले ने यह घोषणा की थी लगभग पांच मिनट तक वह सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा था संभवतः वह तालियां धन्यवाद और कृतज्ञता प्रेषित कर रही थी। उस दानी महा मानव को और ऐसे सभी दानी महा मानवों -दधीचि तुल्य ऋषियों को और आभार प्रदर्शित कर रही थी ऐसे महा मानव के परिवार जनों को।

एक ब्रहा्रलीन योगी, जिनकी दस वर्ष की आयु में दृष्टि चली गई थी, ओर जिन्होने बाद में, वृन्दावन में मानव सेवा संघ की स्थापना की थी, ऐसे स्वामी शरणानन्द जी ने कहा था कि हम अपने जीवन काल में अर्थात ‘जीते जी मरना सीख लें’ तो फिर मरने में कष्ट नहीं होता। हमें अपनी मृत्यु भी आनन्द दायक लगने लग जायेगी।

धन्य है यह सोच, नमन है ऐसे भी महा मानवों को जो जीते जी देहदान और अंगदान का संकल्प लेकर अपना स्थान दधीचि जैसे श्रषियों की श्रेणी में सुनिश्चित करा लेते हैं।