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देहदान

"मृत देह की चीर-फाड़ किए बिना क्या सेवाभावी डॉक्टर मिल सकते हैं समाज को? चाहे कम हों, मगर हैं न?"

भगवान अटलानी
साभार - साहित्य अमृत, प्रभात प्रकाशन

चहत्तर वर्ष का हो गया हूँ तो क्या बुद्धि भ्रष्ट हो गई है? सोचने व समझने, समस्याओं को सुलझाने और संतुलित ढंग से बात करने योग्य नहीं रह गया हूँ क्या? समाज में, सभाओं में, गली-मोहल्लों और संस्थाओं में केवल इसलिए सम्मान मिलता है, क्योंकि मैं वयोवृद्ध हूँ? लोग सलाह-मशविरा लेने क्या यों ही आते हैं मेरे पास? अब भी सावों (शादियों) के दौरान कई बार एक ही दिन एक से अधिक शादियों के आमंत्रण क्यों मिलते हैं? मोबाइल हो या लैंडलाइन, कई बार एक के बाद दूसरा फोन क्यों बजता रहता है? शहर के किसी भी कोने में, किसी भी कार्यालय में काम हो, सामान्यतः क्यों नहीं जाना पड़ता? एक टेलीफोन करने मात्र से क्यों काम हो जाता है? दो साल पहले रेटाइनल डिटेचमेंट हुआ था। यों तो सर्जरी के बाद आँखें ठीक हैं, किंतु ड्राइविंग में थोड़ी तकलीफ होती है, इसलिए कार नहीं चलाता हूँ। मगर इशारा करते ही कोई-न-कोई साथ ले जाने के लिए क्यों तैयार रहता है? जाहिर है, मानसिक दृष्टि से अभी क्षरण नहीं हुआ है मेरा।

घुटनों में दर्द नहीं है। ब्लड प्रेशर सामान्य है। ब्लड शुगर ने कभी डायबिटिक घोषित नहीं किया है। किडनी, हार्ट बिल्कुल दुरुस्त हैं। प्रोस्टेट बीस ग्राम के आसपास है। बिस्तर पर लेटते ही नींद आ जाती है। आई.ओ.एल. के कारण मोतियाबिंद की सर्जरी के बावजूद कोई कष्ट नहीं है। लिखना-पढ़ना, घूमना-फिरना, खाना-पीना, उठना-बैठना, सबकुछ उम्र के प्रभाव से परे है। नियमित रूप से हलका-फुलका व्यायाम, योगासन और प्रातःकालीन भ्रमण मेरी दिनचर्या का अनिवार्य अंग है। शारीरिक कष्ट नहीं है, फिर भी प्रतिवर्ष संपूर्ण स्वास्थ्य जाँच कराता हूँ, ताकि संकेत मिलते ही उपचार, परहेज और सावधानी का सहारा ले सकूँ। अपना काम स्वयं करता हूँ। परनिर्भरता की पंगुता से लगभग मुक्त हूँ। सोना-जागना और मित्रों के साथ मिलना-जुलना तयशुदा समय पर होता है। कह सकता हूँ कि मैं समवयस्कों की तुलना में बेहतर स्वास्थ्य का आनंद ले रहा हूँ।

चार लोगों के बीच बैठता हूँ तो वातावरण को कभी भारी नहीं बनने देता हूँ। दुनिया-जहान की जानकारियों से लैस रहने के लिए पत्रिकाओं, अखबारों, रेडियो, टी.वी., सोशल मीडिया आदि सभी माध्यमों के संपर्क में रहता हूँ। इसलिए महफिल में बातचीत का विषय कुछ भी हो, सक्रिय रहकर असरदार तरीके से भागीदारी करता हूँ। विषय युवाओं की रुचि का हो या समृद्ध व्यापारी की रुचि का हो, सामाजिक समस्याएँ, ताजा घटनाएँ, नई-पुरानी फिल्में और उनसे जुड़े दिलचस्प किस्से, राजनीति की उलटबाँसियाँ, सब मेरे लिए सहज हैं। गंभीर माहौल और ठहाके, दोनों ही स्थितियों में मैं पूरी तरह एकाकार हो जाता हूँ। नकारात्मकता, तंगदिली, आग्रह जैसे विषाणु पहले तो पास ही नहीं फटकते हैं और अगर कभी हमला करते भी हैं तो उनका प्रभाव क्षणिक होता है।

मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य ठीक है। किसी भी कोण से न दकियानूस हूँ और न पोंगापंथी। किसी की परेशानी का कारण नहीं हूँ। फिर भी बेटा-बहू क्यों किनारा करते हैं मुझसे? इस पहेली को सुलझा नहीं पा रहा हूँ। न कभी पास बैठकर बात करते हैं, न किसी मुद्दे पर सलाह लेते हैं और न अपनी किसी खुशी या गम में शामिल करते हैं। ठीक है कि जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ कहने की नौबत नहीं आने देते हैं, मगर भौतिक सुखों की पूर्ति मन की भूख को कभी तृप्त कर सकती है क्या? प्रकृति के विरुद्ध विचित्र प्रकार का एक सूनापन, अबूझ अकेलापन, भीड़ में खो जाने का एहसास और गुलाब के फूलों की सेज पर लेटे होने के बावजूद अदृश्य काँटों की चुभन मुझे निरंतर सालती रहती है। सब आत्मीय आदर दें और अपने ही घर में तटस्थता के आवरण में रहना पड़े तो लगता है कि सबकुछ निरर्थक है। जब मेरी ओर से द्वैत या स्वार्थ सामने नहीं आता है तो ये दूरी क्यों रखते हैं? केवल जरूरी और औपचारिक व्यवहार क्यों करते हैं बेटा-बहू?

अच्छी-खासी पेंशन मिलती है। चाय, सिगरेट, शराब नहीं पीता हूँ। कोई अन्य व्यसन भी नहीं है। कभी पेट्रोल पर पैसा खर्च होता था, अब वह भी नहीं होता है। अखबार जरूर पढ़ता हूँ। घर के सभी सदस्य पढ़ते हैं। इसलिए इसके ऊपर होनेवाला व्यय भी मुझे वहन नहीं करना पड़ता। सब्जी, किराने के सामान, पानी, बिजली और लैंडलाइन टेलीफोन की तरह पत्र-पत्रिकाओं के बिल का भुगतान भी बेटा करता है। पेंशन की लगभग पूरी रकम बैंक में जमा होती है। जरूरत पड़ने पर पहले अन्यथा चार-छह महीनों में एक बार बेटे को चेक दे देता हूँ। वक्त-जरूरत हाथ न फैलाना पड़े, इस दृष्टि से बैंक में फिक्स डिपॉजिट कराया हुआ है। उसके एवज में बैंक ने ओवरड्राफ्ट की लिमिट दी हुई हैय हालाँकि इस लिमिट का उपयोग आज तक नहीं हुआ है। जिस दिन शादी की वर्षगाँठ हो या वार-त्योहार, सबको आकर्षक-कीमती उपहार देता हूँ। अपनी ओर से पूरी कोशिश करता हूँ कि व्यवहार पारदर्शी हो। बेटे-बहू की खामोशी के बावजूद दुनिया-जहान, नाते-रिश्तों, ऊँच-नीच और पास-पड़ोस के प्रसंगों पर उनसे चर्चा करता रहता हूँ। मेरी ओर से बातें हो जाती हैं, मगर बेटा-बहू कभी अपने दुःख-सुख का जिक्र नहीं करते हैं।

दूसरे लोगों से खुलकर बातें करते हैं। हँसी-ठिठोली करते हैं। पिकनिक, सैर-सपाटा, देश-विदेश में यात्रा, पार्टी, सिनेमा आदि का भरपूर आनंद लेते हैंय लेकिन ऐसे अवसरों पर साथ चलने के लिए शायद ही कभी कहते हैं। कभी-कभी लगता है कि संभवतः यह सोचकर मन की बात मेरे सामने न रखते हों कि सुख-दुःख बाँटेंगे, समस्याएँ बताएँगे, ऊँच-नीच की चर्चा करेंगे तो मैं तनावग्रस्त या परेशान हो जाऊँगा। फिर विचार करता हूँ तो लगता है कि नहीं, ऐसा नहीं है। अगर ऐसा होता तो कम-से-कम प्रसन्नतापूर्ण समाचार, सुख देनेवाली सूचनाएँ, प्रगति सूचक घटनाएँ जरूर साझा करते बेटा-बहू मेरे साथ। मात्र कष्ट पहँुचाने जैसा तो नहीं होता है जिंदगी में। उतार का जिक्र मत कीजिए, चढ़ाव पर तो खामोश मत रहिए।

कई बार सुनने को मिलता है कि अमुक जगह आपका बेटा मिला था, बताया होगा न? क्या कहूँ कि मेरा बेटा और मैं भले ही एक छत के नीचे रहते हों, मगर हमारे बीच संवाद नहीं होता। शायद सूचनाएँ देने योग्य नहीं मानता है वह मुझे। संगी-साथी, मित्र मौज-मस्ती में साथ होते हैं। उन सबसे न सही, मगर कुछ के साथ तो मन की बात जरूर करते होंगे। मैं सहज उपलब्ध हूँ। जीवन का अच्छा-खासा अनुभव है। मुझे बताएँगे तो लाभ ही होगा। मन हलका करना हो, समाधान ढूँढ़ना हो, मसला जग जाहिर न करना हो, मनोरथ कोई भी हो सकता है। मुझे बताकर आसानी से उसकी पूर्ति कर सकते हैं। सकारात्मक हों, चाहे नकारात्मक, दोनों मेरे संदर्भ में वर्जित क्षेत्र हैं उनके लिए।

ऐसा भी तो हो सकता है कि कहते या दिखाते चाहे न हों, मगर मुझे वे लोग बोझ की तरह ढोते हों! बुड्ढ़ा जीए जा रहा है। भले ही कुछ न कहता हो, किंतु उसके होने का अव्यक्त, परोक्ष, अघोषित मानसिक दबाव खुलकर कुछ करने नहीं देता है। प्रत्येक निर्णय इस प्रश्न का मुँह ताकता महसूस होता है कि वह सहमत है या असहमत? अगर नाराज होकर डाँटे-फटकारे तभी तो यह पता लगेगा कि उसके दिमाग में क्या है? तटस्थ भाव से, प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना, इस अंदाज में मुसकराता रहेगा, मानो हमारा हर कदम उसे पसंद है।

नहीं, यह भी संभावना नहीं है। वाणी से, भंगिमाओं से, संकेतों से, तौर-तरीकों से मैं अपनी भावनाएँ तो जाहिर कर ही देता हूँ। नाराजगी दिखाकर, क्रोधित होकर, ऊँचा बोलकर और मुँह फुलाकर भले ही कभी असहमति न दिखाई हो, मगर किसी-न-किसी तरह मन-मस्तिष्क को तो खोलकर रखा ही है उनके सामने। मेरी मृत्यु की कामना करें इतना, इतना क्या उसका पासंग भी हस्तक्षेप नहीं किया है कभी उनकी जिंदगी में। उन्हें परेशान करने, संकट में डालने और हाय-तौबा करके बदनाम करने का एक भी प्रसंग याद नहीं आता है मुझे।

मैंने भले ही कभी ऐसा कुछ न किया हो, जिससे बेटे-बहू की सामाजिक प्रतिष्ठा पर आँच आती हो, लेकिन ऐसा कोई भय तो नहीं है उनके मन में कि बुड्ढ़ा चाहे किसी से कुछ न कहे, लेकिन दुनिया तो देख रही है? सुविधाओं की अनदेखी करेंगे तो लोग क्या कहेंगे? शायद बदनामी के डर से करते हों सबकुछ? लोग कहेंगे कि बुजुर्ग का ध्यान नहीं रखते हैं बेटा-बहू। कैसा जमाना आ गया है? यह हाल तो तब है, जब बाप इनके ऊपर किसी भी दृष्टि से निर्भर नहीं है, न रुपए-टके के खयाल से और न स्वास्थ्य के मामले में।

हो-न-हो, लोक दिखावे के चक्कर में बेटे-बहू ने यह बीच का रास्ता निकाला हो! कुछ कहने का, कोई शिकायत करने का मौका नहीं देने के लिए सांसारिक सहूलयितें मुहैया कराने में कोई कमी नहीं छोड़ेंगे। बाहर से देखनेवाले को लगेगा कि बेटा-बहू कितने अच्छे हैं? कितना खयाल रखते हैं? कितना मान-सम्मान और आदर देते हैं? सचमुच, जो कुछ होता है, उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाएगा। कौन देखता है कि काम के अलावा बेटा-बहू मुझसे कितनी देर बात करते हैं? मन की बातें साझा करते हैं या नहीं? सबकुछ होते हुए भी गोया कुछ नहीं है मेरे पास। तरस जाता हूँ दो आत्मीय बोल सुनने के लिए। इंतजार करता रहता हूँ उनके चेहरों पर आत्मीय भावों का कि जिन्हें मुझ समेत सारी दुनिया अपना मानती है अर्थात् मेरा।

स्वभाव के विपरीत वितृष्णा का तीखा डंक झुरझुरी से भर देता है। दर्द का एहसास गहरा होता जाता है। मस्तिष्क की किसी तंत्रिका से शुरू होकर निरर्थकता का घेरा, स्नायुओं के चारों ओर कसता चला जाता है। क्यों जी रहा हूँ मैं ऐसे लोगों के बीच, जिनके लिए मेरे अस्तित्व से अधिक महत्त्वपूर्ण, मेरे होने से ज्यादा अहम दुनिया का डर है? अंततः जिस घर को मैं अपना कहता हूँ, उसमें रहनेवाले मुझे कितना अपना मानते हैं? जिनके लिए जीवन भर सबकुछ किया है, जिनकी बहबूदी को हमेशा सर्वाधिक वरीयता दी है, उनके लिए मेरी हैसियत दुनिया के बाजार में सजाकर रखे गए एक शो केस से अधिक कुछ है क्या? उपकरण की तरह चाक-चैबंद हालत में रखने के पीछे छिपी मंशा को समझ लेने के बाद भी क्या इस्तेमाल होते चले जाना चाहिए मुझे? दुनिया बेटे-बहू को सराहती रहे, इसलिए क्या अपने सूक्ष्म भावों की बलि दे देनी चाहिए मुझे?

तो क्या छोड़ दूँ इस घर को? अलग रहना शुरू कर दूँ? भोजन, घर की साफ-सफाई, हारी-बीमारी, मिलने-जुलनेवालों की आमद के समय चाय आदि की व्यवस्था, जैसे जीने के लिए जरूरी काम अब अपने आप हो जाते हैं। धुले व प्रेस किए कपड़े पहनने को मिलते हैं। मंशा चाहे कुछ भी हो, मगर सबकुछ करते हैं बेटा-बहू मेरे लिए। अलग रहूँगा तो लोगों की दृष्टि में भले ही उनकी छवि पर विपरीत प्रभाव पड़े, किंतु छोटी-छोटी जरूरतें पूरी करने के लिए मुझे निरंतर जूझना पड़ेगा। सब्जी से लेकर रोजमर्रा का सामान जुटाने के लिए भाग-दौड़ करनी होगी। तब क्या अपनत्व मिल जाएगा मुझे किसी से? बेटा-बहू मानसिक तोष न देते हों, मगर सुख-सुविधाओं में कोई कमी आने नहीं देते हैं। उनसे अलग रहूँगा तो अपना दैनिक जीवन तो कठिन बनाऊँगा ही, जिस कारण मैं यह निर्णय लूँगा, उसमें भी परिवर्तन नहीं आएगा।

क्या वृद्धाश्रम में रहने की बात सोची जा सकती है? पेंशन में से हर महीने रुपए देना मेरे लिए कहिन नहीं है। इसी शहर में या किसी दूसरे शहर में ऐसे वृद्धाश्रम में रहा जा सकता है, जहाँ निश्चित राशि लेकर सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। जिन व्यवस्थाओं का बोझ अलग रहकर उठाना पड़ेगा, उनसे मुक्ति मिल जाएगी। मनोरंजन के लिए कमरे में खेलने योग्य खेल, टी.वी., उपकरण आदि सबकुछ होगा। ए.सी. व हीटर होंगे। छोटी-मोटी बीमारियों के लिए डॉक्टर की सेवाएँ मिलेंगी। भौतिक रूप से सबकुछ मिलेगा। वहाँ वृद्धाश्रम में रहनेवालों का साथ रहेगा। मुझ जैसे और मेरी उम्र के कई स्त्री-पुरुष गपशप के लिए होंगे, इसलिए समय गुजारने की समस्या नहीं होगी। लेकिन जिस अपनत्व के अभाव में बेटे-बहू को छोड़ना चाहता हूँ, क्या वृद्धाश्रम में मिल जाएगा? मिलने-जुलनेवाले अब कम हैं क्या? औपचारिकता को अनौपचारिकता और दूरी को निकटता में परिणत करने की आकांक्षा को पूरा करने का उपाय बन पाएगा क्या वृद्धाश्रम?

तय करता हूँ कि सुबह घूमते समय समवयस्कों से चर्चा करूँगा। ठीक है कि खुलकर संदर्भ रहित बात करना उचित नहीं है, मगर वर्तमान वातावरण, पारिवारिक तनावों, बुजुर्गों की उपेक्षा और उनके अंदर के एकाकीपन को विषय के रूप में तो उछाला ही जा सकता है। आशा नहीं है कि व्यक्ति सापेक्ष प्रतिक्रिया मिलेगी, मगर उम्मीद की जा सकती है कि कोई रास्ता खुलकर सामने आएगा। नहीं मिला रास्ता, तब भी जाले तो साफ होंगे, धुँधलका तो छँटेगा।

जब ग्रुप के साथी आ जाते हैं तो पूर्व निर्णयानुसार सुबह घूमते हुए प्रश्न उछालता हूँ, ‘‘आप सब सोचने-समझनेवाले प्रबुद्ध लोग हैं। बताइए, घरों में अवज्ञा झेल रहे बुजुर्गों को राहत कैसे मिल सकती है?’’

मेरे प्रश्न के जवाब में निराशा, परवशता, असहायता, यहाँ तक कि दीनता का भाव वातावरण में व्याप्त हो गया। धीरे-धीरे आक्रोश और क्रोध सबकी भंगिमाओं में सुलगने लगा है। जैसी अपेक्षा थी, आपबीती कोई नहीं कह रहा है। अपनी बात इस तरह व्यक्त कर रहे हैं, जैसे वही बोल रहे हैं, जो चारों ओर देखने को मिलता है।

अचानक हमेशा शांत रहनेवाले एक सज्जन ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘मैंने अपनी वसीयत में जो लिखा है, आप लोगों को बताता हूँ। मौत के बाद बच्चों को मेरी संपत्ति तभी मिलेगी, जब वे मेरी देह दान में देंगे। तीसरे दिन की बैठक, तेरहवीं या श्राद्ध नहीं करेंगे। घर में कहीं मेरा फोटो नहीं लगाएँगे। मेरे नाम को जोड़कर कुछ नहीं करेंगे।’’

‘‘इससे क्या हो जाएगा? क्या हासिल होगा आपको?’’

‘‘क्या इस तरह आप बच्चों को अपना ध्यान रखने की सीख दे पाएँगे?’’

‘‘अजीब वसीयत है। मानें तो संपत्ति के लालच का आरोप लगेगा और न मानें तो पिता की अंतिम इच्छा न मानने की बातें बनेंगी।’’

प्रश्नों व प्रतिक्रियाओं की बौछार के बीच वे मुसकरा रहे हैं। हमेशा मुखर रहनेवाले मेडिकल कॉलेज के एनॉटमी विभाग के अध्यक्ष व प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए डॉक्टर ने जैसे डपटती आवाज में हस्तक्षेप किया, ‘‘पता भी है आपको कि जिसे आप देहदान कहते हैं, उसकी हकीकत क्या है? मैं डिसेक्शन टेबल पर रखी लाशों की जो दुर्गति देखता रहा हूँ, उसे देख लें तो आप कभी देहदान करने की बात सोचेंगे भी नहीं।’’

ग्रुप में खामोशी पसर गई है। डॉक्टर ने उसी आक्रामकता के साथ अपनी बात को जारी रखता, ‘‘खुद डॉक्टर हूँ, फिर भी कहता हूँ कि पैसे की लालच में जितना अनाचार हो रहा है, उसे आप सब देखते, महसूस करते और भोगते हैं। देह को चीर-फाड़ के लिए दान में देकर आप ऐसे लोगों की खेप तैयार करने में मदद कर रहे हैं। कीजिए, जी भरकर कीजिए! मत भूलिए कि आप लालच की खेती करने में मदद कर रहे हैं।’’

देहदान को वसीयत में शामिल करनेवाले सज्जन न डगमगाए और न भ्रमित हुए हैं। उनके होंठों पर पूर्ववत् मुसकराहट है। चलते-चलते निकट आकर मैंने धीमी आवाज में उनसे पूछा, ‘‘डॉक्टर साहब की दलीलों में वजन नहीं लगता है आपको?’’

ठहराव के साथ मुझे देखते हुए वे धैर्य और आश्वासन की प्रतिमूर्ति लग रहे हैं। धीमे स्वर में धैर्यपूर्वक उन्होंने इतना ही कहा, ‘‘जो जीते जी मेरे लिए करना नहीं चाहता, उसे मरने के बाद कुछ करने क्यों दूँ?

‘‘डॉक्टर साहब जिस खेप और खेती करने की बात कहते हैं, उससे इनकार नहीं किया जा सकता, मगर हर डॉक्टर को अमानवीय और लालची मानना भी तो अनुचित है। मेडिकल कॉलेज से निकलने वाले डॉक्टरों की पूरी खेप या मेडिकल कॉलेज रूपी खेती की पूरी पैदावार तो निंदनीय नहीं है। मृत देह की चीर-फाड़ किए बिना क्या सेवाभावी डॉक्टर मिल सकते हैं समाज को? चाहे कम हों, मगर हैं न?

‘‘बेटा-बहू दिखावे के लिए, दुनिया के लिए, औपचारिकता निभाने के लिए, जितना जरूरी है उतना करते हैं। हम नहीं होंगे, तब भी उन्हें मजबूरी में यह नाटक करना पड़ेगा। मन से या बेमन से पाल तो रहे ही हैं न मुझे? संपत्ति से बेदखल करके मैं कर्तव्य पूर्ति से क्यों भागूँ? किया होगा जीवन भर मैंने बेटे और परिवार के लिए बहुत कुछ। अब जितना कर रहे हैं, मेरे किए हुए से उसकी तुलना निश्चय ही नहीं की जा सकती है। लेकिन मैंने वही तो किया है, जो पिता होने के नाते मुझे करना चाहिए था। मरने के बाद यदि संपत्ति उन्हें मिलती है तो प्रकारांतर से उस कर्ज को उतारूँगा, जो बेटे-बहू ने भौतिक सेवा-शुश्रूषा करके मेरे ऊपर चढ़ाया है। भले ही आत्मीयता का अभाव हो, लेकिन उन्होंने जो किया है, उसे दरगुजर तो नहीं किया जा सकता है।’’

‘‘जीते जी ढो रहे हैं, मरने के बाद भी ढोते रहें? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। एक वसीयत मुझे भी तैयार करानी होगी।’’

डी-१८३, मालवीय नगर, जयपुर-३०२०१७
दूरभाष रू ९८२८४००३२५