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सौन्दर्य-धैर्य-शक्ति-ज्ञान-सम्पादन-क्षमा का पर्याय देशप्रेम की भट्टी में तपी कुंदन सी मेरी माँ पंडिता राकेश रानी !

देखा नहीं ‘माँ जैवन्ताबाई’ को, जिनके उच्च कोटि के संस्कारों ने ‘प्रताप’ को ‘महाराणा’ का जामा पहना दिया,
देखा नहीं ‘माता जीजाबाई’ को, जिनके स्वाभिमानी विचारों ने ‘शिवाजी’ को ‘छत्रपति’ बना दिया,
देखा नहीं ‘माँ विद्यावती’ को, जिसका लाल ‘भगतसिंह’ फांसी का फंदा चूम गया,
देखा नहीं ‘मां विद्यावती शारदा’ को, जिनकी प्रेरणा से ‘भारतेन्द्रनाथ’ ने ‘महात्मा वेदभिक्षुः’ बन वेद घर-घर पहुंचाया,
पर हां!...देखा माँ पंडिता राकेशरानी को! जिन्होंने ये जीवनियां मुझे लोरियों की घुट्टी में पिला देशप्रेम भाव जगाया,
और...माँ की शिक्षा-संस्कारोें को सार्थकता प्रदान करने का संकल्प, मेरे हृदय मन्दिर के उद्गारों ने दुहराया!

दिव्या आर्य

माँ ने संकल्प किया था करूंगी देहदान!....10 मई 2015 का था वो शुभ दिनमान! परिसर था अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान का जवाहरलाल नेहरू सभागार!....साक्षी थे भ्राता आलोक कुमार जी एडवोकेट (कार्याध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद्द्ध) एवं डाॅ. हर्षवर्धन जी (केन्द्रीय मंत्री) जैसे नेता महान! प्रस्तुत हं माँ के उद्गार, उन्हीं के मनोभावों में-

संकल्प लिया है देहदान का मैंने, जीने की अभिलाषा रही सर्वदा ही परमार्थ....
मेरी देह काम आये नित नए शोधों हेतु, बनूँ ऐसे भविष्य का आधार....
रोम-रोम पुलकित है मेरा, क्यूंकि खाक में नहीं, ज्ञान में बढूंगी मरणोपरान्त....
‘जीवेम शरदः शतम्’ तो कहते हैं, पर ‘भूयश्च शरदः शतात्’ का है यही मार्ग!

लाॅकडाउन के कारण अथक प्रयत्नों के उपरान्त भी मां का देहदान सम्भव ना हो सका पर....मानवता के लिए कुछ ऐसे ही मनोभावों से सर्वस्व समर्पित करना चाहती थीं हमारी माँ!..... ‘मृत्योर्माऽमृतंगमय’...से मृत्यु के पूर्व ही अमरत्व को जीने वाली, देशभक्ति की, देश पर मर-मिटने की अद्भुत मिसाल!....राणा सी शूरवीर, चाणक्य का थीं जो प्रतिमान, वीर शिवाजी-लक्ष्मीबाई जैसी अद्भुत पराक्रमी व धैर्यवान!...मेरी प्राण-मेरी ऊर्जा, जिनसे है अस्तित्व मेरा, मेरी जननी सर्वाधार!....श्रद्धेय पिताजी महात्मा वेदभिक्षु जी (पं. भारतेन्द्रनाथ जी) की अनन्य प्रेरणा एवं उनके संग हिन्दू रक्षा समिति की सह संस्थापक व अध्यक्ष दयानन्द संस्थान एवं सम्पादक जनज्ञान, कर्मनिष्ठ मेरी माँ पंडिता राकेशरानी!....जो वेद के आदर्शो के लिए जीती थीं सर्वदा...और कहती थीं कि ‘‘तुम में से हर उस मानव के भीतर मैं जीवित रहूंगी जो वेद के आदर्शों के लिए जीता है!...’’ और इस तरह वो मेरे कण-कण में रच बस मेरे रोम-रोम में प्रवाहित हो गयीं....पोर-पोर ऋणी है माँ मेरा क्यूंकि आप हो मेरी जीवन आदर्श!

अपने पति और मेरे श्रद्धेय पिताजी महात्मा वेदभिक्षु जी की अमरवाणी...‘‘खड़ी मृत्यु मेरे बहुत पास...लेकिन मैं जीवन के गीतों में खोया पड़ा हूँ...’’ को जिया जिन्होंने अन्तिम क्षण तक!

लगभग 5 वर्षों तक वेंटिलेटर पर...अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) व वेद मन्दिर में tracheostomy (टैªक्योस्टोमि) पर संघर्षरत होने के उपरान्त भी जिनके जीने का एकमात्र कारण थाµ‘‘उनकी लाडली बिटिया दीपू यानी मैं!...जीवन के भँवर में...नित प्रहार झेलती, वेद मन्दिर, जनज्ञान, प्रकाशन, गौशाला संचालन में अभावों व विषम परिस्थितियों को ठेलती-जूझती, माँ की परिचर्या के बीच...कुचक्रों, व्यूह रचनाओं मंे अभिमन्यु सदृश डूबती सी अकेली डटी अपनी बिटिया दीपू (दिव्या) को अर्जुन बनाने को आतुर व संकल्पित वीरांगना-योगिनी और मेरी परम धैर्यवान माँ...स्वयं मेरे जीवन में मेरी रक्षा हेतु, श्रीकृष्ण की तरह वेंटिलेटर पर...कृत्रिम श्वास युक्त भी मानो प्रभु का साक्षात् रूप धर अवतरित हो गयीं!....

यमराज से लोहा लेतीं...विषम परिस्थितियों में भी प्रेरणा पुंज बन...अद्भुत जिजीविषा से...कठोपनिषद् का- यमराज और वाजश्रवा पुत्र नचिकेता संवाद प्रस्तुत करतीं! मानो नचिकेता की आत्मचेतना की ‘त्रिसन्धि’ को प्राप्त, दिव्याग्नि युक्त, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त....स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर से चेतनावस्था को प्राप्त.... पूरे विश्व में न होगा ऐसा उदाहरण जो प्रस्तुत कर गई हैं मेरी आत्मज्ञानी माँ!

‘‘अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।’’....यह आत्मा अजन्मा, नित्य शाश्वत् और क्षय तथा वृद्धि रहित है। जो शरीर के नष्ट होने पर भी विनष्ट नहीं होता। परमात्मा इस जीवात्मा के हृदय रूपी गुफा में अणु से भी अतिसूक्ष्म और महान है तथा शोकरहित कोई विरला साधक ही परमात्मा की कृपा से इसे देख पाता है। और माँ पंडिता राकेशरानी जी के साथ स्वयं मैंने इसे अनुभूत किया, मा के मरणोपरान्त भी!

एम्स के AB8 ICU में जर्जर होती देह से वेंटिलेटर पर मेरी चिन्ता में घुली...मुस्कुराकर मात्र बाय ही ना करतीं अपितु...मुझे कहतीं कि ‘‘वेद मन्दिर आश्रम पहुंचने के उपरान्त मुझे ICU में फोन करके अपने ठीक से पहुंचने की सूचना दे देना...तसल्ली रहती है!’’...और मैं हँस कर सिस्टर को कहती...‘‘सिस्टर जी! अम्मा को बता देना मैं फोन करके आपको बता दूंगी...रास्ते में दिक्कत हुई तो अम्मा ही तो ICU में रह समाधान करेंगी न!’’...पर मुझे रोज बताना ही होता था!... ऐसे ही एक बार जब मैंने खाना नहीं खाया तो यह जान ICU में ही अपनी खिचड़ी में से जबर्दस्ती मुझे खिलाया तब माँ ने खाया! ऐसी होती है माँ और उसकी ममता....!

अकाट्य सत्य यह है कि...अपने वेदों, अपने देश अपनी भारत माता और पिताजी के अतिरिक्त पूर्ण समर्पित हृदय से माँ ने जिससे अगाध प्रेम किया...‘वो मैं ही हूँ...!’

कोटि-कोटि नमन है प्रभु तुम्हें....! जो मुझे ऐसी माँ की कोख प्रदान की और उनकी सर्वप्रिय बनाया!...साथ ही उनकी ऐसी सेवा का सुअवसर प्रदान किया!....मैं धन्य हुई, कृतार्थ हुई और तुम्हारी ऋणी हुई प्रभो!

मेरे हंसने पर तो बलिहारी थीं...अब रोने पर भी रहना सदा माँ...! जिससे अश्रुओं को भी अपनी ताकत बना मैं तूफानों का रुख मोड़ देने का साहस संजो रखूँ!.... क्यूँकि 40 मुकदमे, असंख्य प्रहार जिस वीरांगना माँ का मनोबल ना तोड़ सके कभी...वो मेरे एक आँसू से...जरा से कष्ट से विचलित हो जाती थीं....! अब....बढूं मैं भी ‘‘राष्ट्र रक्षाम्’’ के पथ पर निरन्तर.‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि’ के उद्घोष के साथ...अब आप मेरे कर्मों में जीवित रहोगी सदा!...‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ के पथ पर....‘‘चरैवेति चरैवेति’’ को शिरोधार्य कर आपके व पिताजी के दिखाए मार्ग के अनुसरण को तत्पर हूं!

रक्त के सम्बन्ध से बहुत परे है मेरा उनका आत्मिक सम्बन्ध! मेरी अम्मा, मेरी गुरु, अनन्य मित्र, पथप्रदर्शक और मानो परमात्मा का ही साक्षात स्वरूप थीं! ढूंढने पर भी कोई त्रुटि उनमें दिखती नहीं....किसी का भी दुव्र्यवहार हो उनके प्रति, सदैव क्षमा किया और मुस्कुराती रहीं और सर्वदा मुझे कहतीं.... कि ‘‘क्षमा करो, ध्यान मत दो।’’

मैंने उन्हें कभी आवेश में आते नहीं देखा। कभी अपशब्द कैसी ही परिस्थिति हो उनके मुख से नहीं सुने। परन्तु उन पर प्रहार करने वालों को मुंह की खाते भी अवश्य देखा है जो...उनके भीरूपन का नहीं अपितु चाणक्य नीति का द्योतक है। और मुझ पर विश्वास ऐसा कि मैं उपस्थित हूं तो हर परिस्थिति में भी निश्चित।

जितना लिखूं मां आप पर कम है...सारी सृष्टि इस विशाल धरती पर सिमट जाए पर आपका व्यक्तित्व मेरी दृष्टि में उससे भी अनन्त है....और इस दुनिया के कांटों भरे, बाध बने वन में फुलवारी सदृश हो आप और आपकी शिक्षा! आप जैसी बन सकूं, आपकी दृढ़ता को धारण करूं और आपके विश्वास की कसौटी पर खरी उतर सकूं सर्वदा!

हे प्रभु ज्ञान की वृष्टि देना सतत् अन्तर्मन में, प्रस्फुटित हो जिसमें सत्य का अथाह प्रकाश,
ऐसी दो पे्ररणा बढ़ूं....माता-पिता की पुत्री बनने की डगर पर, करने जीवन का सर्वांगीण विकास।
जीवन की तमाम बाधओं को बनाऊं अपनी प्रेरणा, कर्मों के झंझावात की उत्पन्न करूं तूफानी डगर,
गुरु दयानन्द, पिता-वेदभिक्षु, माँ-राकेशरानी के स्वप्नों को करूं साकार, यहीं है मेरे हृदय के उद्गार!

हे प्रभु! चाहती हूं हर जन्म में ऐसे ही माता-पिता जिनकी प्रेरणा से, इस जन्म को तो सार्थक बनाऊं! और....हर जन्म भारत माता का ऋण चुकाने इस धरा पर बार-बार आऊं.!....मैंने नहीं देखा भगवान को परन्तु मां से अलग उसकी सूरत हो नहीं सकती! ऐसा अनुकरणीय जीवन और कार्य के प्रति ऐसी निष्ठा मैं नतमस्तक हूं...! पिताजी के शब्दों में देती हूं आपको भावाभिव्यक्ति मां!

‘‘आज भी इस विशाल धरती पर एकाकी चलते हुए जो कुछ भी हो रहा है उसका आधार, परमात्मा का आशीर्वाद जनता का प्यार और एक मात्रा सहयोगिनी श्रीमती राकेशरानी की कार्य क्षमता है। दुःख में, सुख में, संकट में, विपदा में इस महिला ने जो साथ दिया उसका वर्णन लेखनी करने में असमर्थ है। निरन्तर रुग्ण रहते हुए भी 18-19 घंटे कुर्सी पर बैठकर मूक साधना करने वाले इस व्यक्तित्व का मूल्यांकन इतिहास करे या न करे लेकिन यह सत्य है कि यदि ऐसे 10 व्यक्ति भी सारे देश में मिल जाते तो देवदयानन्द के दिव्य स्वप्न पूर्ण होने में देर न लगती।’’

भारतेन्द्रनाथ (महात्मा वेदभिक्षुः)