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देह दान और अंग दान में आने वाली अड़चने

देह दान और अंग दान में मृत देह से अंग लेने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी किसी भी मेडिकल काॅलेज के एनाॅटमी विभाग की होती है।

देह-अंग दान के लिए वर्तमान में हमारे देश में दो कानून हैं। एक है मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम (ट्रांसप्लांटेशन आॅफ ह्यूमन आॅर्गन)। यह अधिनियम 1994 में बना था। इसमें 2011 में संशोधन किए गए। इसका नाम भी संशोधित करके मानव अंग और टिश्यू प्रत्यारोपण अधिनियम (ट्रांसप्लांटेशन आॅफ ह्यूमन आॅर्गन एंड टिश्यू एक्ट) कर दिया गया। इस कानून के तहत सिर्फ बीमारी का इलाज करने के मकसद से दानदाता (जीवित व्यक्ति या मृत देह) से मुख्यतः अंगों और टिश्युओं को लिया जाता है।

चिकित्सा विज्ञान के पास दूसरा है इण्डियन ह्यूमन एनाॅटाॅमी एक्ट है जो सबसे पहले 1890 में बना। यह कानून दिल्ली में दिल्ली एनाॅटाॅमी एक्ट 1953 के नाम से है। महाराष्ट्र तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में भी है। इण्डियन ह्यूमन एनाॅटाॅमी एक्ट के अंतर्गत चिकित्सा के वैज्ञानिक अध्ययन और अध्यापन के मकसद को पूरा करने के लिए मृत्यु के बाद सम्पूर्ण देह दान का प्रावधान है।

यह दोनों ही कानून अपने-अपने उद्देश्यों के लिए बहुत ही प्रभावशाली और व्यावहारिक हैं, लेकिन इन दोनों में अपने-अपने कुछ अंतर-विरोधाभास भी हैं। यही कारण है कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसकी वसीयत के अनुसार परिवारजन मेडिकल काॅलेज के एनाॅटमी विभाग से कहते है कि मृत देह को ले लिया जाए और उसके अंगों का जैसे चाहें उपयोग किया जाए तो ऐसे में कई बार एनाॅटाॅमी विभाग उक्त दोनों अधिनियमों की आड़ में देह दान और अंग दान के मामले को उलझा देता है। हांलाकि, यह नहीं कहा जा सकता है कि इसके पीछे विभाग का मंतव्य गलत होता है। सवाल है कि ऐसे में इन दोनों कानूनों पर कैसे एक साथ अमल किया जाए? और यही सर्वाधिक महत्वपूर्ण सवाल है।

कुछ समय पहले तक पूरे देश में मेडिकल काॅलेजों को मृत देह उपलब्ध कराने वालों की संख्या कम थी। इस काम के लिए उनका कोई संगठन भी नहीं था। आज हालात बदल चुके हैं। गम्भीर और दवाइयों से इलाज न किए जा सकने वाली स्थिति में अंग प्रत्यारोपण का चलन बढ़ता जा रहा है। लोग भी बड़ी संख्या में देह दान और अंग दान के लिए जागरूक हो चुके हैं। वर्तमान में अधिकांश बड़े सरकारी और गैर सरकारी अस्पतालों के पास अपने-अपने प्रत्यारोपण केन्द्र और अंगों की प्राप्ति एवं उनको ज़रूरतमंदों तक पहुंचाने की व्यवस्था करने वाले केन्द्र है। बावज़ूद इसके इन अस्पतालों के पास ट्रांसप्लांट को-आॅर्डिनेटर्स की संख्या न के बराबर है। विशेषकर ऐसे को-आॅर्डिनेटर्स जो अंगों की मांग करने के लिए प्रशिक्षित हों।

वर्तमान में हमें एक ऐसी प्रणाली या प्रक्रिया पर काम करना होगा जो, परिवारजनों द्वारा मेडिकल काॅलेज के एनाॅटमी विभाग को मृत देह का दान करने और यह कहने के बाद कि जिस भी अंग की आवश्यकता हो या देह के सभी अंग निकाल लिया जाएं, सक्रिय हो जाए। यह प्रणाली तभी सम्भव हो सकती है जब एक प्रशिक्षित को-आॅर्डिनेटर निजी तौर पर या समूह में दानी परिवार और मेडिकल काॅलेज के बीच सक्रिय हो।

कई बार होता यह है कि परिवारजन देह देने को तो राज़ी होते हैं लेकिन देह के अंगों को देने से इनकार कर देते हैं। ऐसे में सर्जन के पास इस मामले को सुलझाने के कानूनी अधिकार नहीं हैं। मानव अंग और टिश्यू प्रत्यारोपण अधिनियम एवं इण्डियन ह्यूमन एनाॅटाॅमी एक्ट में ऐसा कोई निर्देश नहीं है कि सर्जन कैसे आवश्यक अंग ले। इसलिए ऐसी प्रणाली या प्रक्रिया या निर्देश ज़रूरी हैं जो इन दोनों कानूनों को एक साथ लागू करने में मदद कर सके।

दूसरा मुख्य मुद्दा एनाॅटाॅमी एक्ट का है। कुछ कारणों से एनाॅटाॅमी विभाग कह देता है कि किसी भी ऐसी देह को स्वीकार नहीं किया जा सकता जिसे सर्जिकली या किसी और तरीके से छेड़ा गया हो। सवाल है क्यों? क्या यह कानूनी प्रतिबंध है या एनाॅटमी विभागों का प्रतिबंध है? अथवा कोई और वजह? अगर यह कानूनी वजह है तो सवाल उठता है कि विभाग काॅर्निया निकाल दी गई मृत देह को क्यों ले लेते हैं? अगर काॅर्निया के मामले में देह ले ली जाती है तो बाकी अंग निकाले जाने के बाद विभाग क्यों नहीं मृत देह को लेने से क्यों इनकार कर देता है?

मेरा निजी तौर पर मानना है यदि मृत देह चिकित्सा छात्रों के अध्ययन के लिए ज़रूरत के मुताबिक उपलब्ध होतीं तब तो विभाग का यह चुनाव जायज होता कि उसे परफेक्ट मृत देह ही चाहिए। ऐसे में हो यह रहा है जो उपलब्ध है वह भी हाथ से जा रहा है। फिर आज के समय में यह भी ज़रूरी नहीं है कि उस व्यक्ति की जो 50-60 या इससे अधिक आयु में मरा हो और उसके सभी अंदरूनी अंग स्वस्थ हों। इसलिए मेरा सुझाव है कि कोई ऐसा कानूनी संगठन हो जो इस मामले को देखे और सुलझाए।

इस मामले का तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष वह मृत देह हैं जिन्हें एनाॅटमी विभाग पोस्टमाॅर्टम के बाद ले लेता है। पोस्टमाॅर्टम दिन में होता है और अंगों का रिट्रीवल रात में। यही नहीं पोस्टमाॅर्टम में कई बार दो दिन तक लग जाते हैं और सर्जन को प्रत्यारोपण के लिए अंग द्रुत गति से (ेचममकसल) चाहिए। पोस्टमाॅर्टम के केस में पुलिस सर्जन को शीघ्र उपलब्ध हो सके इसके बजाए मौत की वजह जानने को महत्व देती है। यानी मौत अस्वाभाविक है या असामयिक। इसके पीछे कोई दुर्भावना है या जायज़ कारण। होता यह है कि दुर्घटना के मामले ज़्यादातर अदालत पहुंच जाते हैं और अदालत पोस्टमाॅर्टम रिपोर्ट की मांग करती है। कुछ मामलों में दुर्घटना इंसान की अपनी गलती से होती और सड़क पर चलने वाले अनेक उसके गवाह भी होते हैं, लेकिन कानूनी कार्रवाई में उलझ जाता है। इसलिए वह रास्ता तलाशना होगा जिससे दुर्घटना में मौत के मुंह में चले गए इंसान की देह का चिकित्सकीय उद्देश्यों तथा चिकित्सा विज्ञान के अनुसंधान एवं अध्यापन के लिए उपयोग किया जा सके और ज़रूरी कानूनी कार्रवाई शीघ्र पूरी की जा सके।

चिकित्सा कानून में यह पहले से ही है कि जब रात में या किसी भी समय प्रत्यारोपण के लिए अंग को दूसरी जगह से आॅपरेशन थिएटर में लाया जाता है, तो आॅपरेशन थिएटर को उस व्यक्ति की उपस्थिति में पोस्टमाॅर्टम थिएटर का हिस्सा मान लेना चाहिए जो पोस्टमाॅर्टम करता है। फिलहाल स्थिति यह है कि पोस्टमाॅर्टम करने वाले किसी भी समय नहीं आते। शायद उनके अपने-अपने कारण हैं। वह रात मे बिल्कुल नहीं आना चाहते।

ऐसे में मेरे कुछ सुझाव हैं। पूरी दिल्ली एक या दो पोस्टमाॅर्टम थिएटर हैं जबकि अवकाश प्राप्त चिकित्सकों की बड़ी संख्या यहां है। मेडिकल काॅलेजों को अपने-अपने क्षेत्र के ऐसे पांच या छह चिकित्सकों को पोस्टमाॅर्टम करने वाले डाॅक्टर के रूप में अनुबंध पर नियुक्त करने की सहूलियत मिल जाए तो समस्या का समाधान हो सकता और इन डाॅक्टरों के अनुभव का लाभ भी उठाया जा सकता है। मेरी समझ में इसके लिए बस एक प्रशासनिक आदेश की ज़रूरत है। याद करें उत्तराखंड में बद्रीनाथ पर हुए प्राकृतिक प्रकोप की, जिसमेे हज़ारों की जान चली गई थी। उस समय प्रशासनिक आदेश से जो भी जगह खाली मिली, चाहे वह किसी स्कूल की थी, गेस्ट हाऊस अथवा जंगल की ज़मीन थी, उसे पोस्टमाॅर्टम थिएटर के रूप में इस्तेमाल किया गया।

डाॅ. हर्ष जौहरी
एडवाइज़र आॅर्गन ट्रांसप्लान्टेशन
स्वास्थ मंत्रालय एवं परिवार कल्याण, भारत सरकार
से बातचीत के आधार पर।