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देहदान में मन के महत्व को समझना


रंजू भाटिया

देहदान केवल शरीर का दान नहीं है; यह मानसिक और आत्मिक स्तर पर लिया गया एक गहरा निर्णय है। यह संकल्प तभी सार्थक होता है, जब मन पूर्ण रूप से इसके लिए तैयार हो और अहंकार से मुक्त हो। यदि मन में डर, संशय या अहंकार का भाव है, तो यह दान अपना उद्देश्य खो देता है। मृत्यु के बाद अपने शरीर को दूसरों के हित में समर्पित करने का विचार तभी संभव है, जब व्यक्ति आत्मबल और मानसिक दृढ़ता के साथ अपने अहं, मोह और शरीर की पहचान से ऊपर उठे।

मन को यह स्वीकार करना होता है कि देह नश्वर है, लेकिन इसका उपयोग दूसरों की भलाई के लिए किया जा सकता है। यह विचार आत्मिक शांति प्रदान करता है। जब मन इस सत्य को आत्मसात कर लेता है, तभी देहदान वास्तव में सफल होता है। यह न केवल विज्ञान की सेवा है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं की भी अभिव्यक्ति है। मन की शुद्धता और दृढ़ता ही इसे सार्थक बनाती है।

देहदान और अहंकार का सूक्ष्म संबंध

देहदान में अहंकार एक महत्वपूर्ण और सूक्ष्म चुनौती है। यह कार्य परोपकार का प्रतीक है, लेकिन यह व्यक्ति के अहं को भी सीधे चुनौती देता है। मनुष्य अक्सर अपने शरीर को "स्व" मानकर उससे मोह रखता है। सुंदरता, शक्ति और प्रतिष्ठा जैसी चीजें शरीर से जुड़कर अहंकार को बढ़ावा देती हैं। देहदान का विचार इस अहं को तोड़ता है—यह शरीर मेरा नहीं, यह एक दिन नष्ट हो जाएगा।

कभी-कभी देहदान करने वाला व्यक्ति इस कार्य को भी प्रतिष्ठा या आत्म-प्रशंसा का साधन बना लेता है, जैसे: "मैंने देहदान किया, इसलिए मैं श्रेष्ठ हूँ।" यदि यह कार्य दिखावे या गौरव की भावना से किया जाए, तो इसका मूल्य खो जाता है। देहदान का असली महत्व तभी है, जब यह पूर्णतः निस्वार्थ हो। यदि यह करुणा, मानवता और वैज्ञानिक प्रगति के लिए किया जाए, तो यह अहंकार को विसर्जित करने का माध्यम बनता है। लेकिन यदि यह "नाम" कमाने के लिए हो, तो यह सेवा नहीं, स्वार्थ बन जाता है।

भारतीय दर्शन में कहा गया है—"दानं हि सतां गुणः"—अर्थात् दान सज्जनों का गुण है, और यह तभी सार्थक है, जब उसमें "मैं" की भावना न हो। देहदान का मूल उद्देश्य भी यही है—स्वयं को मिटाकर दूसरों की सेवा में समर्पण। यदि संकल्प के बावजूद व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर दूसरों को नीचा दिखाता है या खुद को सर्वश्रेष्ठ मानता है, तो यह दान छोटा पड़ जाता है। आपका मन जैसा है, आपकी देह भी उसी की पहचान बनती है। सिर्फ श्रेष्ठ दिखने की होड़ इस दान को व्यर्थ कर देती है। जब तक हम अपने भीतर के "मैं" और अहंकार को नहीं त्यागते, तब तक कोई भी बाहरी त्याग अधूरा है।

'मैं' का भ्रम

'मैं' हूं, यही भ्रम सबसे बड़ा, इस 'मैं' ने मन को जकड़ा सदा।

अहंकार की दीवारें ऊंची हुईं, स्वर्ग की सीढ़ियां चुपके चढ़ीं।

कहता हूं—देह दान करूंगा मैं, पर क्या त्याग सका 'मैं' को भला?

यह 'मैं' ही बांधता हर दान को, यह 'मैं' ही रोकता पहचान को।

जब तक 'मैं' जीवित है भीतर, हर दान दिखावा, अधूरा, अस्थिर।

देह का दान है क्षणिक उदाहरण, 'मैं' का दान है सच्चा समर्पण।

देह मिट्टी है, कल गल जाएगी, 'मैं' की आग सब जला जाएगी।

जलाओ पहले 'मैं' को लौ में, तब देह चढ़े पुण्य की शोभा में।