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"हम जीतेंगे - Positivity Unlimited" व्याख्यानमाला

जीत लिया मन जिसने उसने जीत लिया जग सारा

दीदी मां साध्वी ऋतंभरा जी

सभी देशवासियों को सादर नमस्कार करती हूं. बहुत विचित्र परिस्थितियां हैं, विपरीत परिस्थितियां हैं. लेकिन विपरीत परिस्थितियों में ही समाज के दायरे के धैर्य की परीक्षा होती है. इन विपरीत परिस्थितियों में जबकि हमारा पूरा देश एक विचित्र महामारी से जूझ रहा है. यह वो समय है, जब हमें अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत करना है. इस देश ने तपश्चर्या, तप और त्याग की आग क्या होती है उसमें से गुजर जाना है. उस तपस तेज की आग में गुजर कर एक कुंदन की तरह चमक कैसे धारण की जाती है, मेरे पुरखों ने इसका अनुभव लिया है. और हमें वो हमारे धर्म ग्रंथों में वांग्मय रूप में प्राप्त है.

सच है, विपत्ति जब आती है तो कायर हिक को दहलाती है.
सूरमा नहीं विचलित होते हैं, पर एक पल भी नहीं धीरज खोते
विघ्नों में राह बनाते हैं, कांटों को गले लगाते हैं
मुख से न कभी उफ कहते हैं, जो आ पड़ता है सो सहते हैं
खम्म ठोक ठेलता है जब नर, तो पर्वत के जाते पांव उखड़
मानव जब जोर लगाता है, तो पत्थर पानी बन जाता है

मनुष्य के सामने, मनुष्य के साहस के सामने, संकल्प के सामने, उसकी दृढ़ शक्ति के सामने बड़े-बड़े पर्वत तक टिक नहीं पाते. आपने देखा, नदी का प्रवाह जब प्रवाहित होता है तो वह बड़ी-बड़ी चट्टानों को रेत में परिवर्तित करने का सामर्थ्य रखता है. इसलिए इस विकट परिस्थिति में असहाय होने से समाधान नहीं होगा, अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत करना होगा. मैं विचार कर रही थी प्रातःकालीन तो मुझे पौराणिक कथानक स्मरण हो गया. महाभारत का समय था. कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीहरि भगवान श्रीकृष्ण एक टिटीहरी की करूण क्रंदन को सुन रहे हैं. उसको कुररी भी कहा जाता है. वो करूण क्रंदन है, उसमें विलाप है, उसमें व्याकुलता है, उसमें कुछ प्रार्थना है. वो प्राणी पंछी भगवान के रथ के चक्कर लगा रहा है और चीत्कार कर रहा है. श्रीकृष्ण की दृष्टि उस पर पड़ी, तो उसने अपने मौन में ही प्रार्थना कर ली कि प्रभु ये जो कुरूक्षेत्र का मैदान है, यहां योद्धाओं से योद्धाओं की तरवारें एक-दूसरे से टकराएंगी, पर मेरी तो छोटी सी दुनिया है. दुनिया में कुछ भी हो जाए, कुछ फर्क नहीं पड़ता. पर अपनों के साथ कुछ हो जाए तो सारी दुनिया बदल जाती है. तो मेरे इन अंडों का क्या होगा, भगवान थोड़ी देर उसको देखकर मुस्कुराए. और कुरूक्षेत्र की अन्य व्यवस्थाओं को देखने में लग गए. वो मूक प्राणी तो मूक था, वाणी नहीं थी पर वाणी थी, दर्द था और वो करूण क्रंदन पुकार बन गयी जब, तो श्रीहरि ने उस पुकार को सुना था. और अर्जुन से कहा देख रहे हो सामने वो जो हाथी है, उसके घंटे की जंजीर पर बाण चलाओ. वो घंटा जंजीर से अलग होकर नीचे आकर धप्प से गिर गया. अट्ठारह दिन वो महायुद्ध चलता रहा, महाकाल वहां मंडराता रहा, मृत्यु तांडव नृत्य करती रही. 18 दिनों बाद जब शवों से पटी थी वह सारी धरती और भगवान उसी तरह युद्ध क्षेत्र का निरीक्षण करते-करते उस जगह पर पहुंचे और अर्जुन से कहा, इस घंटे को हटा दो, और जैसे ही उस घंटे को हटाया गया तो उसके नीचे से टिटीहरी के चार बच्चे चूं-चूं करते जीवित मृत्यु के उस महासागर में जीवन का गीत गाते हुए प्रकट हो गए थे.

मुझे स्मरण आ रहा था, जैसे कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान ने उस टिटीहरी से कहा था कि तीन हफ्ते के लिए बंद हो जाओ, अपना चोगा एकत्रित कर लो और लॉकडाउन हो जाओ. अपनी समस्त शक्तियों को समाहित करो और भरोसा रखो. हुआ था न समाधान, होता है न समाधान. समाधान तब होता है, जब मनुष्य को अपने पर भरोसा होता है. समाधान होता है, जब मनुष्य अपने आराध्य और इष्ट पर भरोसा करता है. इसलिए विश्वास के साथ हम इस महामारी से जीत जाएंगे.

मैं समस्त भारतवासियों को निवेदन करना चाहती हूं कि दोषारोपण से क्या होगा, किसने क्या किया, किसने क्या नहीं किया. राज्य अपनी व्यवस्था में लगा है, संलग्न है वह व्यवस्था करने में. लेकिन राज्य ही काम करेगा क्या? राष्ट्र भी तो काम करेगा. और राष्ट्र क्या, अगर राज्य शासन-प्रशासन है तो राष्ट्र है इस देश का निवासी. वह जब अपने आत्मबल को, आत्म संयम को और आत्म संकल्प को जागृत करता है तो बड़ी-बड़ी समस्याओं की औकात भी छोटे चींटें जैसी रह जाती हैं. तो मैं समझती हूं, जब सिर पर ये काल मंडरा रहा है, मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा है. इसमें जिंदा रहना और जीवित रखने का संकल्प ही हमें इससे उद्धार करेगा.

मैं निवेदन कर रही थी कि बहुत बार मैं देखती हूं कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बहुत हो रहे. हम पता नहीं किस तरह के लोग हैं, देखिए ....

गलतियों से जुदा मैं भी नहीं, तू भी नहीं,
इंसान हैं हम, खुदा मैं भी नहीं, तू भी नहीं
और एक-दूसरे को इल्जाम देते हैं हम,
पर अपने अंदर झांकता मैं भी नहीं, तू भी नहीं
बहुत सारी गलतफहमियों ने पैदा कर दी हैं दूरियां,
किंतु फितरत का बुरा मैं भी नहीं, तू भी नहीं

हम इंसान हैं और इन सारी परिस्थितियों के बीच में अगर हमारी शक्ति मात्र नकारात्मक चिंतन में लग जाएगी तो कर्म करने का सामर्थ्य और कुछ नया सोचने का सामर्थ्य समाप्त हो जायेगा. इसलिए इन विपरीत परिस्थितियों में भारत जैसा देश, जो आध्यात्मिक देश है, जो सारे संसार को मार्गदर्शन देता रहा है. उसका अपने-आप में बिखरना अच्छा नहीं है.

इसलिए मेरा निवेदन है कि पत्थर जो चोंट खाके टूट गया, कंकर बन गया और पत्थर जो चोट को सह गया शंकर बन गया. ये परिस्थितियों की चोटों को झेलते हुए बिखरने नहीं देना है स्वयं को, अपने अंदर को निखारना है. इसलिए इन सारी परिस्थितियों से बाहर जाने का मात्र एक मार्ग है. हम एक विषाणु से पराजित नहीं हो सकते, हमारा संकल्प इतना छोटा नहीं कि हम एक अज्ञात विषाणु से पराजित हो जायेंगे. बस यही वह संकल्प, श्रीहरि की कृपा पर भरोसा, अपने आप पर भरोसा और सबसे बड़ी बात है इस समय की नजाकत को समझना. मैं अक्सर एक बात कहा करती हूं कि....

सीख सुनहरी पुरखों की रखना हरदम याद,
किया वक्त बर्बाद जिन्होंने हुए वही बर्बाद
कठिन काल में वीर कभी भी पीठ नहीं दिखलाता,
या तो हंसा मोती चुगता या भूखा मर जाता
शुभ कर्मों के बिना कभी भी हुआ नहीं निस्तारा,
जीत लिया मन जिसने उसने जीत लिया जग सारा
इस दुनिया का सार एक है नित्य अबाध रवानी,
अपनी राह बना लेता है खुद ही बहता पानी.

इसीलिए संकल्पवान बनिए, मन को जीतिए और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों के शिकार मत बनिए. इस देश में जो अफवाहें फैलाते हैं, उनको देशद्रोही मानिए और जो विपरीत परिस्थितियों में भी सीना तानकर अपने और अपनों की सुरक्षा के लिए संलग्न होते हैं, वो हैं देशमाता के सच्चे पुजारी. मैं राष्ट्र के सभी बंधु भगिनियों से ये निवेदन करती हुई कि जिन्होंने अपनों को खोया है, उनके प्रति हमारी भारी संवेदनशीलता, हमारा चित्त भारी व्याकुलताओं से भरा है. लेकिन इन चिताओं को लंबे समय तक हम नहीं जलने देंगे. यही संकल्प मृत्यु से मृत्यु को पराजित करेगा. इसलिए इस विपरीत परिस्थितियों में अपनी आध्यात्मिक शक्ति को जागृत करिए, बहुत दुखी हैं हम लेकिन विवेक से भी तो काम लेना होगा, सुख-दुख की झूठी चाह से मुक्त होना होगा. इसलिए उस आत्म ज्ञान को जागृत करके और जहां जो हो सकता है, अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपने मोहल्ले के लिए, गांव के लिए चिंतन कीजिए. कुछ कार्य कीजिए. बाहर दूर क्या हो रहा है, वहां हम समाधान नहीं बन पाएंगे. वहां जाकर कोई मदद नहीं कर पाएंगे. लेकिन अगर अपने आप पर संयम करके, कछुए की तरह अपने हाथ-पैर समेट लिए तो निश्चित रूप से यह जो संयम है, ये हमें इस महामारी से बाहर ले आएगा. सबके चित्त में शांति हो, शरीर निरामय रहें, सब निरोगी रहें, इसी भावना के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देती हूं.