Home
Print
Previous
"हम जीतेंगे - Positivity Unlimited" व्याख्यानमाला

सक्सेस इज़ नॉट फाइनल, फेल्युअर इज़ नॉट फेटल, द करेज टू कन्टीन्यू इज़ द ऑनली थिंग देट मेटर्स

डॉ.मोहन भागवत जी,
सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेववक संघ

कोविड रिस्पांस टीम, सीआरटी के सभी कार्यकर्तागण एवं आभासी माध्यम से इस व्याख्यान श्रृंखला के कार्यक्रम में उपस्थित सर्व श्रोतागणों को मेरा सादर सस्नेह नमस्कार।

सकारात्मकता के बारे में बात करने के लिये मुझे कहा है। कठिन है, क्योंकि समय बहुत कठिन चल रहा है। अनेक जगह, अनेक परिवारों में कोई अपने कोई आत्मीय बिछड़ गए हैं। अनेक परिवारों में तो भरण-पोषण करने वाला ही परिवार का सदस्य, अचानक चला गया। दस दिन में जो था वो नहीं था, ऐसे हो गया। और इसलिये अपने वाले के जाने का दुःख और भविष्य में खड़े होने वाली समस्याओं की चिंता ऐसी दुविधा में तो परामर्श देना, सलाह देना, इसके बजाय पहले तो सांत्वना देना। लेकिन ये सांत्वना के परे दुःख है। इसमें तो अपने को अपने आप को ही संभालना पड़ता है। हम अपनी सह संवेदना बता सकते हैं, बता रहे हैं और यहां पर्दे पर केवल कोरी संभावना नहीं बता रहे। संघ के स्वयंसेवक सर्व दूर, इस परिस्थिति में समाज की जो भी आवश्यकता है, उसकी पूर्ति करने के लिए अपने-अपने क्षमता के अनुसार सक्रिय हैं। परन्तु ये कठिन समय है। अपने लोग चले गए। उनको ऐसे असमय चले जाना नहीं था। परन्तु अब तो गए, अब कुछ नहीं कर सकते। अब जो परिस्थिति है, उसमें हम हैं। और जो चले गए वो तो एक तरह से मुक्त हो गये। उनको इस परिस्थिति का सामना अब नहीं करना है। हमको करना है। पीछे हम लोग हैं, हमको अपने आप को और अपने सब को सुरक्षित रखना है। और इसलिये हमको नेगेशनिज्म नहीं चाहिये। कुछ नहीं हुआ, सब कुछ ठीक है। ऐसा हम नहीं कह रहे। परिस्थिति कठिन है, दुःखमय है। मनुष्य को व्याकुल करने वाली है, निराश करने वाली है। लेकिन यह परिस्थिति है, इसका स्वीकार करते हुए हम अपने मन को नेगेटिव नहीं होने देंगे। हमको अपने मन को पॉजिटिव रखना है। शरीर को कोरोना नेगेटिव रखना है और मन को पॉजिटिव रखना है।

उस दृष्टि से इस श्रृंखला में मेरे पूर्व वक्ताओं ने बहुत सटीक सम्पूर्ण, ऐसी परामर्श की बात रखी है। स्पष्ट रखी है, सरल भाषा में रखी है, अनुभूति के आधार पर रखी है। मन की दृढ़ता की बात उन्होंने की है। कोरोना प्रतिकार के अपने प्रयासों की गति बढ़ाने की, उन प्रयासों को वैज्ञानिकता के आधार पर स्थापित करने की, सामूहिकता से काम करने की, एकता की। उसी प्रकार सत्य को पहचानते हुए, स्वीकारते हुये, उसके आधार पर काम करने की बात कही है। अपने आपको ठीक रखना, समाज की चिंता करना, इसका आग्रह उन्होंने किया है। वही बातें मुझे भी बतानी हैं। मैं अपनी भाषा में बताउंगा क्योंकि वो अनुभूत बातें हैं। मुख्य बात मन की है, पहली। मन अगर हमारा थक गया, हार गया तो हम तो जैसे किसी सांप के सामने चूहा एकदम निष्क्रिय होकर कुछ भी न करते हुये, लूला होकर बैठ जाता है। कुछ करता ही नहीं है अपने बचाव के लिए, ऐसी समस्या के सामने हमारी स्थिति हो जाएगी। ऐसा हमको होने नहीं देना है और ऐसी हमारी स्थिति नहीं है। हम कर रहे हैं। सारे चित्र को देखते हैं तो जितना दुःख है, उतनी ही आशा है। ऐसी परिस्थिति में समाज की कुछ विकृतियां बाहर आती हैं, यह बात सही है। लेकिन जितनी विकृति बाहर आ रही है, उससे अधिक सत्कृति बाहर आ रही है। बहुत से लोग सब प्रकार के सब आर्थिक रूप से, समाज पर यह संकट है, सब पर संकट है। इसका भान रखकर स्वयं की भी चिंता कर रहे हैं और उनसे जितनी बनती है, उतनी समाज की भी चिंता करते हैं। ऐसे उदाहरण बहुत हो रहे हैं कि अपनी चिंता किये बिना दूसरों की चिंता, ‘दाई नीड इज ग्रेटर‘ इस प्रकार की वृत्ति का दर्शन समाज कर रहा है। इसको हमने ध्यान में रखना चाहिये। निराशा की परिस्थिति नहीं है। लड़ने की परिस्थिति है। कठिन परिस्थिति है। लेकिन परिस्थिति तो अपने मन के प्रतिभावों पर निर्भर करती है।

क्या ये निराशा, ये पांच-दस अपरिचित लोगों के जाने का समाचार का सुनना, मीडिया के माध्यम से परिस्थिति बड़ी विकराल है, इसका घोष निरंतर सुनना। ये हमारे मन को उदास बनाएगा, कटु बनाएगा ऐसा नहीं होगा। ऐसा होने से विनाश ही होगा। ऐसा अभी तक हुआ नहीं है मानवता के इतिहास में। इसलिए ऐसी सब प्रकार की बाधाओं को लांघकर मानवता आगे बढ़ी है, अब भी बढ़ेगी। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार उनकी किशोरावस्था में उनके माता-पिता दोनों ऐसी ही महामारी चल रही थी नागपुर में प्लेग, उसमें स्वयं की चिंता किये बिना समाज के लिए काम करते थे। उस समय तो दवाईयां भी नहीं थी। अगर समाज की चिंता करेंगे तो निश्चित रूप से हम पर भी गाज गिरेगी। यह मानकर चलना पड़ता था, ऐसे समय में प्लेग के रोगियों की सेवा करते-करते एक ही दिन में दोनों चले गये। डॉ. हेडगेवार किशोर आयु के थे उस समय। डॉ. नहीं बने थे। केशव कहे जाते थे। उस संवेदनक्षम आयु में उनके मन पर परिणाम क्या हुआ, क्या उनका जीवन आगे कटुता से भर गया, क्रोध से भर गया? निराश हो गये, ऐसा नहीं हुआ। इस वियोग के दुख के विष को पचाकर उन्होंने उसमें से संम्पूर्ण समाज के प्रति निरपेक्ष आत्मीयता का स्वभाव बनाया। जिनका जिनका उनके साथ संबध आया है, विचारधारा से उनके हो न हों, लेकिन वो एक बात बता सकते हैं कि डॉ. हेडगेवार यानि स्नेहप्रेम, ऐसा उनका स्वभाव बना।

जब विपत्ति आती है तो हमारी प्रवृति क्या होती है? हम जानते हैं कि हम भारत के लोग हैं, हम जानते हैं कि यह जीवन जरा मरण, जीवन जरा मरण का चक्र चलता रहता है। मनुष्य एक न एक दिन जैसे पुराने कपड़े, मैले कपड़े छोड़कर नये कपड़े बदलता है। उसी प्रकार पुराना शरीर निरुपयोगी हो गया उसको छोड़ देता है, दूसरे जन्म में आगे बढ़ने के लिए नया शरीर धारण करके आता है। यह जानने वाले हम लोग हैं। हमको यह बातें डरा नहीं सकतीं, निष्क्रिय, निराश नहीं बना सकतीं।

ब्रिटेन के पंतप्रधान बने चर्चिल। उसके बाद उनके कार्यालय में, उनके टेबल पर एक वाक्य लिखा रहता, वाक्य क्या था? - प्लीज अंडरस्टैंड देट देयर इज नो पैसीविज्म इन दिस ऑफिस। वी आर नॉट इंटरस्टिड इन पॉसिबिलिटीस ऑफ डिफीट, दे डू नॉट एग्जिस्ट। हम हार की चर्चा में बिल्कुल रस नहीं रखते क्योंकि हमारी हार नहीं होने वाली। हमको जीतना है। सम्पूर्ण राष्ट्र को अपने उत्साह से, अपने वक्तृत्व से अपने करने से चर्चिल ने इस मनःस्थिति पर खड़ा किया कि चाहे जो हो हम हारेंगे नहीं, हम शरण नहीं जाएंगे और हम जीतेंगे। और वो जीते, विपरीत परिस्थिति में जीते। उस समय का डाटा फीड करते क्म्प्यूटर में तो कम्प्यूटर कहता कि इंग्लैड परास्त हो जाएगा। लेकिन लगातार महीना भर दिन-रात बम के रेडों को झेलकर, ब्रिटेन की जनता ने अपने देश को केवल टिकाया नहीं, तो उस शत्रु को पूर्ण परास्त किया। यह क्यों हुआ, क्योंकि यह प्रवृति ही ऐसी थी। सामने जो संकट है, जो दुःख है, जो अंधकार है, उसको देखकर वह निराश नहीं हुए। उन्होंने उसको एक चुनौती मान लिया। हमको भी ऐसा संकल्प करके इस चुनौती से लड़ना है। और सम्पूर्ण विजय इस पर पाएंगे, तब तक सतत् प्रयास करते रहना है।

संकल्प की दृढ़ता का जैसे महत्व है, वैसे प्रयास के सातत्य का महत्व है। पहली लहर आने के बाद हम सब लोग जरा गफलत में आ गए। क्या जनता, क्या शासन, क्या प्रशासन। मालूम था, डॉक्टर लोग इशारा दे रहे थे। फिर भी थोड़ी गफलत में आ गए, इसलिए ये संकट खड़ा हुआ। अब आगे तीसरे लहर की चर्चा कर रहे हैं तो डरना है क्या उस चर्चा के कारण, डरना नहीं है। अगर वो आती है तो जैसे चट्टान पर टकराकर सागर की लहर चूर-चूर होकर वापस लौटती है, वैसे उस आपत्ति को वापस लौटना पड़े, ऐसी तैयारी हमको करनी है। यह प्रवृत्ति चाहिए, उसकी आवश्यकता है और दृढ़ता के साथ सतत प्रयास हमको करने हैं। समुद्र मंथन के समय कितने ही रत्न निकले। लेकिन उन रत्नों के आकर्षण से प्रयास बंद नहीं हुए, मंथन चलता रहा। हलाहल जैसी भीती भय उत्पन्न हुआ, लेकिन उसके कारण भी प्रयास से विरत नहीं हुए। अमृत प्राप्ति होने तक प्रयास चलते रहे और इसलिए सुभाषित में कहा है.....

श्लोक –

रत्नैर्महाब्धे: तुतुषुर्न देवाः न भेजिरे भीमविषेन भीतिम् |

सुधां विना न प्रययुर्विरामं न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ||

रत्न प्राप्त होने पर उससे तोषित नहीं हुए, तुष्ट नहीं हुए। हलाहल जैसा कराल विष उसके कारण भी डरे नहीं। अमृत मिलने तक उनके प्रयास चलते रहे। धीर लोग जो रहते हैं, धैर्यवान लोग जो होते हैं, वो प्रयास सतत जारी रखते हैं जब तक उपलब्धि प्राप्त नहीं होती।

हमको वैसा करना है और स्वाभाविक आपत्ति सारी मानवता पर है। भारत को अपना उदाहरण रखना है। पूरे भारत को एक समूह के नाते, सारे भेद भूलकर, दोष गुणों के साथ अभी उसको विराम देकर, उसके लिए बाद में समय मिलेगा, अभी तो हमको सबको एक टीम के नाते काम करना है, मिलकर काम करना है। गति बढ़ाने की बात श्रीमान अजीम प्रेमजी ने की, स्पीड चाहिए। वो स्पीड कैसे तैयार होगी। सब लोग परस्पर एक टीम बनकर काम करेंगे। अभी पिछली बार पूना शहर में और इस बार भी उस शहर के उद्योजक, बड़े व्यापारी, प्रशासन, डॉक्टर, अस्पतालों के कर्मचारी, जनता के संगठनों के प्रतिनिधि, सबने मिलकर एक समूह बनाया पीपीसीआर नाम का। और बहुत अच्छी तरह से अत्यंत कठिन परिस्थिति का सामना करके उसमें से वो निकल आए। सर्व दूर ऐसा सामूहिक प्रयास चाहिए। देर से जागे तो कोई बात नहीं। सामूहिकता के बल पर अपनी गति बढ़ाकर हम ये जो सारा अंतर पड़ा है, बैकलॉग है, उसको भरकर आगे निकल सकते हैं, निकलना चाहिए। कैसे करना, पहले तो अपने आप को ठीक रखना और ठीक रखने के लिए पहली बात है संकल्प की दृढ़ता, प्रयास का सातत्य, धैर्य। प्रयत्न करने से एकदम परिणाम नहीं होता, थोड़ा देर लगती है परिणाम आने को। तब तक धैर्य रखना पड़ता है, लगे रहना पड़ता है। दूसरी बात है सजगता। हम सजग रहें तो बहुत अच्छा बचाव सजगता के कारण ही हो सकता है और सक्रियता। सजगता के पहलू हैं, स्वयं सजग रहना, क्या व्यायाम करना, उसके बारे में बताया है। प्राणायाम का उल्लेख हुआ है, ओंकार का उल्लेख हुआ है, दीर्घ श्वसन का उल्लेख हुआ है। अन्य भी जो व्यायाम अपने शरीर की प्रतिकार शक्ति, श्वसन की क्षमता, प्राणों की तेजस्विता बढ़ाने वाले, वो मन को भी बनाते हैं। ऐसे व्यायाम हैं, सूर्य नमस्कार जैसे, हम कर सकते हैं, हमको करना चाहिए। सीखने को तो आजकल मिलता है, प्रत्यक्ष जाकर कहीं, सीखने की आवश्यकता नहीं, ऑनलाइन सीखने की भी आजकल व्यवस्था हो गई है। और इन बातों को समझने वाले, सिखाने वाले आजकल अभ्यास के कारण आसपास भी मिलते हैं। बहुत कठिन क्रियाएं नहीं हैं। उसको करना, आहार ठीक रखना, शुद्ध, स्वच्छ, सात्विक आहार करना, शरीर की ताकत को बढ़ाने वाला आहार करना। उसके बारे में भी बहुत सारी जानकारी आपको इंटरनेट पर मिलती है। लेकिन जानकारी के बारे में ध्यान रखना, कहा गया है कि वैज्ञानिकता का आधार लेना चाहिए। वैज्ञानिकता क्या है? परीक्षा करके लेना, कोई कहता है इसलिए वो ठीक है, ऐसा नहीं हैं। टेक्स्ट बुक में लिखा है, इसलिए सबको लागू होगा ऐसा भी नहीं है। नया है इसलिए ठीक है, पुराना है इसलिए दकियानूसी है। ऐसा भी नहीं है। और पुराना है इसलिए ठीक है, और नया है इसलिए बेकार है, ऐसा भी नहीं हैं। जो भी आ रहा है उसको परख के लेना चाहिए। तज्ञ लोग, आप्त लोग, हमारा स्वयं का अनुभव और उसके पीछे का वैज्ञानिक तर्क, इसकी परीक्षा करनी चाहिए।

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्य।

सन्तरू परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥

हमारी तरफ से बे-सिर पैर की कोई बात समाज में न जाए और बे-सिर पैर की कोई बात समाज में चल रही है तो उसकी बलि हम न बनें, इसकी चिंता करनी है। आयुर्वेद अपना एक सिद्ध शास्त्र है। उसके अनेक नुस्खे हैं, अनुभूत हैं, परंपरा में चल रहे हैं। आयुर्वेद का तर्क उसके पीछे है, उसका उपयोग करने में कोई दिक्कत नहीं। लेकिन आयुर्वेद के नाम पर कई बातें ऐसी चलती रहती हैं, कोई बताने वाला व्यक्ति उसको उसका लाभ होता हो तो हो, लेकिन सबके लिए बताने लायक वो बातें तब तक नहीं हैं, जब तक वो इस वैज्ञानिकता के तर्क के आधार पर, लम्बे अनुभव के इतिहास के आधार पर, और शास्त्रों के आधार पर सही नहीं उतरती और इसलिए सावधानी रखकर, ऐसे उपचार और आहार का सेवन करना, विहार का भी ध्यान रखना

युक्ताहार विहारस्य, युक्त कर्मसु चेष्टसुः

शरीर को, मन को अशक्त बनाने वाले कर्मों को छोड़ दीजिये। खाली रहना बंद कीजिये, खाली मत रहिये, कुछ न कुछ नया सीखिए। अपने परिवार के साथ गपशप कीजिये, अपने बच्चों को अधिक अच्छा समझिये, अपने बच्चे हमको अधिक अच्छा समझें, ऐसा संवाद कायम करें। कई बातें हैं, कुटुंब को भी प्रशिक्षित किया जा सकता है, ऐसा समय हमारे पास मिला है। उसका उपयोग कीजिये, खाली नहीं रहना और युक्ताहार विहारस्य में मुखाच्छादन मास्क, पहनना, इसकी दक्षता, यह अनिवार्य है।

पर्याप्त अंतर पर रहकर एक दूसरे से संबंध रखना, आवश्यक है, अनिवार्य है। वैसे ही स्वछता का पालन करना, सेनेटाइजेशन करते रहना, सारी बातें मालूम हैं हमको। अनदेखी होती है, असावधानी होती है और जब सावधानी हटती है, तब दुर्घटना घटती है। इसलिए सजगता रखना। थोड़ी सी आशंका हो गई कि कुछ गड़बड़ है तो उपचार के लिए संकोच नहीं करना। कुछ लोग कोरोना पॉजिटिव होना बड़ी बदनामी मानकर छुपाते हैं, जल्दी उपचार नहीं लेते, अस्पताल में जो वातावरण रहता है उसके कारण एडमिट होने में आनाकानी भी करते हैं।

और दूसरा सिरा यानि भय के कारण अनावश्यक उपचार करते हैं, अनावश्यक एडमिट होते हैं। तब यह होता है कि जिसको वास्तविकता में जरूरत है उसकी जगह बुक हो जाती है, उसको नहीं मिलती। इसलिए तुरंत वैद्य की सलाह लेकर वह जैसा कहते हैं, वैसा करना। निःसंकोच करना। समय पर इसके उपचार होते हैं तो बहुत कम दवाइयों में, प्राथमिक सावधानियां बरतने से व्यक्ति इस बीमारी से बाहर आ सकता है। इसलिए उसकी चिंता करनी चाहिए और यह जो जो हमारे संपर्क में आते हैं उन सब को बताना चाहिए। उनसे करवा लेना चाहिए। जन प्रबोधन एवं जन प्रशिक्षण का बड़ा महत्व है। हम अपने स्तर पर अपने संपर्क के दायरे में जो जो आते हैं, उनसे यह संवाद कर सकते हैं। और जन प्रबोधन, जन जागरण के प्रयास जो लोग कर रहे हैं, उनके कार्य में भी सहभागी हो सकते हैं। प्रत्यक्ष सेवा करनी है, जिनके स्वास्थ्य पर कोरोना का आघात हुआ है, उनकी सेवा करनी है। उनके लिए बेड चाहिए व्यवस्था करनी है, ऑक्सीजन चाहिए, उपयोगी व्यवस्थाएं खड़ी करने में सेवा करनी है। कई प्रकार की सेवाएं स्वास्थ्य को लेकर करनी हैं। पहली लहर में हमने कुछ की थी, अब कुछ अधिक प्रकार की करने की आवश्यकता है। करने में बहुत लोग लगे हैं, हम उसमें सहभागी हो जाएं। बच्चों की शिक्षा पिछड़ने का यह शायद दूसरा वर्ष होगा तो अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से वर्ष में फिर उनकी परीक्षा होगी या नहीं होगी, प्रमोट होंगे या नहीं। इसकी चिंताएं छोड़ कर कम से कम वह ज्ञान जो वह 2 साल में प्राप्त करने वाले थे, उसमें वे पिछड़ ना जाएं, इतनी चिंता समाज के नाते हम अपनी तरफ से कर लें। बाकी व्यवस्थाएं क्या होंगी देखा जाएगा। ऐसे ही, बहुत से लोग फिर से रोजगार बंद हो गया, जिनका हाथ परपेट है, रोज का रोज कमाते हैं....उनकी परिस्थिति बड़ी कठिन है, उनकी सुधि लेनी चाहिए। कम से कम भी भूखे ना रहें, उनके घर के लोग भूखे ना रहें इतनी तो चिंता करनी चाहिए।

हम अपने दायरे में जो लोग हैं, उनको देख सकते हैं. उनकी क्या स्थिति है, समझ सकते हैं. उनकी सेवा कर सकते हैं और ऐसी सेवा देने वाले सब संगठन काम कर रहे हैं. उनके साथ हम भी लग सकते हैं. कल, इसके कारण रोजगार की, कमाई की, आर्थिक क्षेत्र में हमारे पिछड़ने की, हमारी अर्थव्यवस्था की गति कम होने की समस्या खड़ी हो जाएगी. अनेक प्रकार से उसका सामना अभी से करना प्रारंभ करना पड़ेगा. स्किल ट्रेनिंग से लेकर सारी बातें, उसमें हम जितना कर सकते हैं समाज के नाते, व्यक्ति के नाते हमको करना चाहिए. ऐसा रोजगार करने वाले लोगों को ढूंढकर उनसे खरीदना चाहिए. अभी गर्मी के दिन चल रहे हैं, ठंडे पानी की मशीन घर में मत लगाओ. कोई मिट्टी का मटका बनाने वाला है तो उसका मटका आप खरीद लो. ऐसा विचार हम कर सकते हैं. ऐसा विचार करके बरतना और ऐसा प्रयास करने वालों के साथ सहभागी हो.

यह सारी जो परिस्थिति पर चर्चा हो रही है और आने वाली परिस्थिति पर चर्चा हो रही है. वह पैनिक क्रिएट करने के लिए नहीं है, भीती क्रिएट करने के लिए नहीं है. वह तो हमको आगाह किया जा रहा है, तैयारी के लिए. नियम, व्यवस्था एवं अनुशासन का पालन करते हुए हम चलें, समाज को चलाएं और यह सेवा हम करें, करने वालों के साथ समाज के नाते हम भी सहभागी हों. ऐसा हम करेंगे तो हम आगे बढ़ेंगे. हमें जीतना है, हमारा संकल्प है.

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, ऐसा हमारा देश है. इतने साल में मिटा नहीं, इतने भयानक संकटों को झेलकर मिटा नहीं तो होगी महामारी, विश्वव्यापी महामारी होगी, बड़ा छिपा शत्रु होगा, बड़ा रूप बदलने वाला होगा. कठिन जंग लड़नी होगी, लेकिन लड़नी ही होगी और जीतनी ही होगी, हम जीतेंगे. यह हमारा दृढ़ संकल्प है. परिस्थिति आई है, वह हमारे सद्गुणों की परख करेगी. हमारे दोषों को भी दिखा देगी. हमारे दोषों को दूर करके, सद्गुणों को बढ़ाकर यह परिस्थिति हमको प्रशिक्षित करेगी. यह हमारे धैर्य की परीक्षा है. यह धैर्य, यह महत्व की बात है. एक वाक्य का आप स्मरण रखिए – सक्सेस इज़ नॉट फाइनल, फेल्युअर इज़ नॉट फेटल, द करेज टू कन्टीन्यू इज़ द ऑनली थिंग देट मेटर्स........ यश-अपयश का खेल चलता रहता है. यूनान, मिस्र, रोमा सब मिट गए जहां से, कुछ कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी. ऐसा हम कहते हैं तो उस हस्ती में हमारा सत्य का साक्षात्कार हमारे पूर्वजों ने जो हमको सौंपा और पीढ़ी दर पीढ़ी उस सत्य का आचरण करने वाली संस्कृति दी. वो संस्कृति और हमारा इस यशापयश के आघातों में उनको पचाकर आगे बढ़ना. यश को भी पचाना, अपयश को भी पचाना और उस धैर्य की प्रवृत्ति के साथ सत्य प्राप्त होने तक सतत प्रयास का दृढ़ संकल्प रखकर आगे बढ़ना, ये बात है. वह बात हमारी है. उस के बल पर हम जीतेंगे. उसका प्रदर्शन हम सब लोग करें, यह परिस्थिति की मांग है. हमको अपने समाज के ज्येष्ठों का परामर्श इसके पहले के सब व्याख्यानों में मिला है, उसका यह अर्थयुक्त हृद्यंगम करके हम प्रयासों में लग जाएं, निराशा का कोई कारण नहीं, हम जीतेंगे यह बात निश्चित है. सजग रहना पड़ेगा, सक्रिय रहना पड़ेगा. इतनी ही बात ध्यान में रखनी है. इतनी बात आपके सामने रख कर मैं अपने निवेदन को विराम देता हूं. बहुत-बहुत धन्यवाद....