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दधीचि एक विचार, एक ध्येय, एक दर्शन !

मीना अग्रवाल

मैं और मेरे साथी, महर्षि दधीचि की तपो भूमि से कितनी ऊर्जा लेकर वापस लौटे - हमारा चिन्तन इसका आंकलन नहीं कर पा रहा था। लेकिन, हां इतना अहसास अवश्य हो रहा था कि उस तीर्थ और तपोभूमि की यात्रा से मेरी पिपासा शान्त नहीं हुई। बल्कि, वहां की परिस्थितियों ने मन को और भी विचलित अवश्य कर दिया। यद्यपि इस तीर्थ को साफ-सुथरा बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, फिर भी वहां चारों ओर गन्दगी का साम्राज्य नज़र आ रहा था। आस-पास के क्षेत्रों में कूड़े के ढेर की कोई कमी नहीं थी। वह कुण्ड जहां दधीचि आश्रम है और जहां चक्र तीर्थ है - दोनों की स्थिति दयनीय ही थी। वहां के पुजारियों में अधिक से अधिक राशि चढ़वाने की प्रवृत्ति दिखाई दी। सम्भवतः आस-पास की गरीबी और अभाव इस प्रवृत्ति का कारण बनते हों।

इन सभी तीर्थ स्थानों पर अवश्य ही विपुल साहित्य का सृजन हुआ होगा! अनुसंधान भी किए गए होंगे! कितने विश्वविद्यालयों ने विद्यार्थियों को पीएच.डी. की डिग्री से सम्मानित किया होगा! इस विषय पर बहुत से लेख राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए होेंगे! कितने विशिष्ट व्यक्तियों एवं विभूतियों ने इन पवित्र स्थलों का भ्रमण किया होगा! इस धार्मिक स्थल का विकास करने के लिए कितनी योजनाएं बनी होंगी और उन योजनाओं कितना कार्य हुआ होगा। ये सभी प्रश्न और इसी प्रकार की ऊहा-पोह मेरे मन को उद्वेलित कर रहे थे, क्योंकि मुझे वह सब कुछ इस यात्रा से नहीं मिला, जिन्हें संजो कर मैं वहां गई थी। मुझे आशा है कि हम सभी के सतत् एवं सामूहिक प्रयासों से इस स्थिति में कुछ तो सुधार होगा, और मेरे जैसे यात्री निश्चित रूप से भविष्य में अपनी झोली में कुछ न कुछ संचय कर वापस लौटेंगे।

इसके लिए मेरे मन में कुछ सुझाव हैं, जो निम्न लिखित हैं:-

  1. इस तीर्थ के विकास एवं स्वच्छता के लिए स्थानीय समृद्ध एवं प्रतिभावान लोगों की समिति का गठन किया जाए।
  2. वहां पर एक पुस्तकालय बनाया जाए जिसमें स्थानीय इतिहास, विकास एवं अनुसंधान सम्बंधित सारा साहित्य उपलब्ध हो।
  3. सभी आश्रमों, कुण्डों एवं निकटवर्ती क्षेत्रों की सफाई का नियमित रूप से प्रबन्धन हो।
  4. इस महान तपो भूमि, मन्दिरों एवं आश्रमों पर समुचित अनुसंधान हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक शोध संस्थान की स्थापना हो।
महर्षि दधीचि एक ऋषि ही नहीं थे, वह न केवल युग प्रवर्तक थे बल्कि वह एक विचार थे, एक चेतना थे, एक चिन्तन थे और आज भी वो विचार, चिन्तन, चेतना उतने ही प्रासंगिक हैं जितने तब थे जब प्राचीन काल में महर्षि दधीचि जीवित थे, तप कर रहे थे, समाधिस्थ हुए और उन्होंने अपनी अस्थियों का दान किया था।

दधीचि दर्शन यात्रा से उठे कुछ प्रश्न और उनके समाधान के लिए सुझाव। लेखिका चौथी दर्शन यात्रा में सहभागी थीं।